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दूसरे व्रत के अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९१ आगे-पीछे सोचे बिना एकदम किसी पर झूठा दोष या मिथ्या कलंक मढ़ देना, झूठ-मूठ अपराध लगा देना; जैसेतूं ही तो चोर है, तूं परस्त्रीगामी है, इत्यादि रूप से कहना सहसाभ्याख्यान नामक दूसरा अतिचार है। कोई-कोई इसके बदले यहां रहस्याभ्याख्यान नामक अतिचार बताते हैं। 'रहः' अव्यय है, उसका अर्थ होता है-एकांत। एकांत में होने वाले को रहस्य कहते हैं। झूठी प्रशंसा करना या झूठी निंदा, चुगली करना भी रहस्याभ्याख्यान है। जैसे कोई किसी बुढ़िया से एकांत में कहे कि तुम्हारा पति तो फलां तरुणी से प्रेम करता है और किसी तरुणी से एकांत में कहे कि 'तुम्हारा पति बड़ा कामकला में कुशल और प्रौढ़ चेष्टा वाला है, उसका तो मध्यमवय की नारियों पर अनुराग है। अथवा किसी स्त्री से कोई कहे कि तेरा पति गधे के समान अत्यंतविषयी अथवा कामुक है। अथवा तेरा पति तो नामर्द है। इस प्रकार की हंसी-मजाक करे अथवा किसी स्त्री के लिए झूठी बात बनाकर उसके पति से कहे कि तेरी पत्नी मुझे एकांत में कहती थी कि 'तेरे अतिविषयसेवन से वह बेचारी हैरान हो गयी है।' अथवा यों कहे कि 'वह कहती थी-मैं अपने पति को भी रतिक्रीड़ा में थका देती हूं।' अथवा दंपतियुगल में से किसी स्त्री या पुरुष को मोह या आसक्ति बढ़े, उस प्रकार की बातें करना अथवा उस स्थिति में एकांत में अनेक प्रकार की गुप्त बातें या हंसी मजाक की बातें करना, जिससे पुरुष को स्त्री पर झूठा शक (वहम) हो जाय अथवा स्त्री को पुरुष पर झूठा भ्रम पैदा हो जाय; इस प्रकार की भ्रांतिजनक बातें करना रहस्याभ्याख्यान अतिचार है। जान-बूझकर दुराग्रहवश झूठ बोलने पर तो व्रतभंग हो जाता है। कहा भी है-जानबूझकर सहसा झूठा आरोप आदि लगाया जाय तो वहां व्रतभंग हो जाता है, और जहां बिना उपयोग के, हंसी-मजाक में या बिना सोचे-समझे, किसी को बदनाम किया जाय या किसी पर लांछन लगाया जाय, वहां सहसाभ्याख्यान नामक दूसरा अतिचार लगता है। ३. गुह्यभाषण - शासनकार्य (राजकार्य) में कई ऐसी गोपनीय बातें होती हैं, जो सभी को बताने लायक नहीं होती, (मंत्रियों को उस गोपनीयता की शपथ भी दिलायी जाती है) उन राज्यादि कार्यसंबंधी गुप्त बातों को बिना उपयोग के, सहसा अनजाने में प्रकट कर देना गुह्यभाषण नामक अतिचार है। अथवा इंगित या आकृति आदि से जानकर उसके विषय में दूसरे से कहना गलत निर्णय कर लेना-भी गुह्यभाषण है। जैसे कोई किसी से कहे कि 'अमूक | व्यक्ति राज्यविरुद्ध कार्य करता है।' अथवा एक दूसरे की चुगली खाकर परस्पर भिड़ा देना-एक की मुखाकृति और आचरण के आधार पर जरा-सा अभिप्राय जानकर दूसरे को ऐसी युक्ति से कहना जिससे कि उन दोनों की परस्पर प्रीति टूट जाय-यह भी गुह्यभाषण नामक तृतीय अतिचार है। ४. विश्वस्त व्यक्ति की गुप्त बात प्रकट करना, चौथा अतिचार है। किसी मित्र, अपनी स्त्री या किसी विश्वसनीय व्यक्ति ने कोई गुप्त बात किसी पर भरोसा रखकर कही हो और वह उस गुप्त बात को जहां-तहां प्रकट कर देता है तो उसे यह अतिचार लगता है। हालांकि जैसी बात किसी ने कही है, उसी बात को वह यथार्थरूप से दुहरा देता है, इसलिए बाह्य दृष्टि से असत्य न होने से अतिचार रूप नहीं मालूम देती; लेकिन स्त्री-पुरुष की या मित्र अथवा विश्वस्त व्यक्ति की गुप्त हकीकत प्रकट हो जाने से कई दफा वह लज्जावश आत्महत्या कर बैठता है। इस प्रकार के घोर अनर्थ का कारण होने से परमार्थ से वह वचन असत्य ही है। कदाचित् अनजाने में या विश्वस्त समझकर कह देने पर व्रत के आंशिक भंग होने से अतिचार है। किसी की गुप्त बात, गुप्तमंत्रणा और गुप्त आकार आदि प्रकट करने का अधिकार न होने पर भी दूसरों के सामने प्रकट कर देता है अथवा स्वयं मंत्रणा करके उस गुप्तमंत्रणा को प्रकट कर देता है और दो प्रेमी व्यक्तियों के बीच फूट डलवा देता है, वहां चौथा अतिचार होता है। ५. कूटलेख - झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज बनाना, दूसरे के हस्ताक्षर जैसे अक्षर बताकर लिखना अथवा नकली हस्ताक्षर कर देना, पांचवा अतिचार है। यद्यपि झूठे लेख लिखने आदि में वचन से असत्य नहीं बोला जाता, न बुलवाया जाता है। तथापि ऐसा करना असत्य का ही प्रकार है, सत्यव्रत का आंशिक भंग है, इसलिए अतिचार है। जहां सहसा आवेश में आकर वाणी से मौन रखकर हाथ से झूठी बात लिखी जाती है, वहां व्रत की मर्यादा के अतिक्रमादि के कारण अतिचार लगता है; अथवा यों समझकर कि मेरे तो असत्य बोलने का नियम है, यह तो लेखन है, इससे मेरे व्रत में कोई आपत्ति नहीं आती; ऐसी समझ से कोई व्यक्ति व्रतपालन की भावना पूर्वक असत्य लिखता है, तो वहां यह पांचवां अतिचार है। इस तरह दूसरे व्रत के ये पांच अतिचार हुए ।।९१।।
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