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द्वितीय अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९१ से ९१ में भी ऐसा न करना चाहिए। ऐसा करना निरर्थक भोजनादि-निरोध है। किन्तु किसी को बुखार या अन्य बीमारी में लंघन | करवाना पडे अथवा प्रयक्त भोज्य पदार्थ बंद करना पडे तो उतने समय के लिए ही बंद करना सार्थक और सापेक्षनिरोध है। अपने द्वारा बंधन में डाले हए या रोककर रखे हुए आश्रित प्राणी को पहले आहार करवा कर फिर स्वयं भोजन करे। अपराधी को कदाचित् दंड देना पड़े तो केवल वाणी से कहे कि 'आज तुम्हें भोजन आदि नहीं मिलेगा।' रोगशांति आदि के लिए श्रावक उपवास करा सकता है। अधिक क्या कहें! श्रावक को स्वयं विवेकी बनकर अहिंसा रूप मूलगुण में अतिचार न लगे इस तरह से यतनापूर्वक व्यवहार या प्रवृत्ति करनी चाहिए।
यहां शंका होती है कि श्रावक के तो हिंसा (वध) का ही नियम होता है, इसलिए बंधन आदि में दोष नहीं है। हिंसा से विरति के अखंडित होने से यदि बंधन आदि का नियम लिया हो और उस हालत में बंधन आदि करे तो विरति खंडित हो जाने से व्रतभंग होता है। या बंधन आदि के प्रत्याख्यान ले लेने के बाद व्रत की मर्यादा टूट जाती है तो प्रत्येक व्रत में अतिचार होता है, किन्तु बंधन आदि का तो कोई अतिचार होता नहीं। इसका समाधान यों करते हैं-तुम्हारी बात ठीक है, हिंसादि का प्रत्याख्यान किया है, लेकिन बंधनादि किया हो तो केवल उसके नियम में अर्थापत्ति से उनके भी प्रत्याख्यान किये हुए समझना। बंधनादि हिंसा के उपायभूत है। इसलिए उनके करने पर व्रतभंग तो नहीं होता; लेकिन अतिचार तो होता है। यह कैसे? इसका उत्तर यों है-व्रत का पालन और भंग दो प्रकार से होता है-अंतर्वृत्ति से और बहिर्वृत्ति से। 'मैं मारूंगा,' इस प्रकार के विकल्प के अभाव में यदि कोई किसी पर गुस्सा करता है या आवेश प्रकट करता है, तो उसमें दूसरे के प्राण का विनाश नहीं माना जाता, इसी प्रकार किसी रोष या आवेश के बिना कोई |बधन आदि में प्रवृत्ति करता है तो उससे हिंसा नहीं होती। निर्दयता या विरति की निरपेक्षता से प्रवृत्ति होने से अंतर्वत्ति से व्रतभंग होता है और हिंसा का अभाव होने से बहिर्वृत्ति के पालन द्वारा आंशिक रूप से (देशतः) विरतिभंग होने से प्रवृत्ति के कारण अतिचार का व्यपदेश होता है। इसलिए कहा है-'मैं नहीं मारूंगा', इस प्रकार के नियम जिसने लिये हैं, उसे दूसरे की मृत्यु हुए बिना कौन-सा अतिचार लगता है? जहां क्रोध आदि के वशीभूत होकर कोई वधादि करता है और अपने गृहीत नियम की अपेक्षा नहीं रखता, वहां अवश्य ही निरपेक्ष कहना चाहिए। यद्यपि दूसरे प्राणी की मृत्यु नहीं होती, इसलिए उसका नियम तो कायम है, लेकिन क्रोधवश या निर्दयता से प्रवृत्त होने के कारण व्रतभंग तो हो ही जाता है। इस दृष्टि से देशतः (आंशिक रूप से) भंग और देशतः पालन होने से पूज्यवरों ने उसे अतिचार कहा है। और जो यह कहा जाता है कि इससे बारहव्रत की मर्यादा टूट जाती है, वह युक्तियुक्त नहीं है। विशुद्ध अहिंसा के सद्भाव में बंधन आदि में अतिचार है ही। बंधनादि से उपलक्षण से मारण, उच्चाटन, मोहन आदि मंत्रप्रयोग वगैरह दूसरे अतिचार भी जान लेने चाहिए ।।९।।
अब दूसरे व्रत के अतिचार बताते हैं।२६२। मिथ्योपदेशः सहसाऽभ्याख्यानं गुह्यभाषणम् । विश्वस्तमन्त्रभेदश्च, कूटलेखश्च सूनृते ।।९१॥ अर्थ :- १. मिथ्या (संयम या धर्म के विपरीत, पाप का) उपदेश देना, २. बिना विचार किये एकदम किसी पर
दोषारोपण करना, ३. किसी की गुप्त या मर्म (रहस्य) बात प्रकट कर देना, ४. अपने पर विश्वास करके कही हुई गोपनीय मंत्रणा दूसरे से कह देना और ५. झूठे दस्तावेज, झूठे बहीखाते या झूठे लेख लिखना; ये सत्याणुव्रत के पांच अतिचार हैं ॥९१।।
. व्याख्या :- १. मिथ्या उपदेश का अर्थ है-असत् उपदेश। असत्य के प्रत्याख्यान व सत्य के नियम लेने वाले के लिए पर-पीडाकारी वचन बोलना असत्यवचन कहलाता है। इसलिए प्रमादवश पर-पीड़ाकारी उपदेश देने में अतिचार (दोष) लगता है। जैसे कोई कहे-गधे और ऊंटों को क्यों बिठाये रखा है? उनसे काम करवाओ, भार उठवायो, चोर को मारो इत्यादि। अथवा यथार्थ अर्थ से विपरीत उपदेश देना भी अतिचार है। इसका मतलब यह हुआ कि विपरीत उपदेश को अयथार्थ-उपदेश माना गया है। जैसे कोई किसी पाप को कर ले और उससे पछे जाने पर उसका ठीक उत्तर न दे, सत्य बात न कहे, अथवा विवाद में पड़कर स्वयं या दूसरे के द्वारा अन्य किसी के सामने झूठा अभिप्राय प्रकट किया जाय या उलटी प्रेरणा दी या दिलाई जाय, वहां प्रथम अतिचार लगता है। २. सहसा किसी प्रकार का
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