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प्रथम अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८९ से ९० पुत्र के कारण ही तो आप संसार में एकमात्र भाग्यशालिनी पुत्रवती कहला रही है। आपके इस महापराक्रमी पुत्र ने संसार का तत्त्व समझकर तिनके के समान लक्ष्मी का त्याग करके, साक्षात् मोक्षमूर्ति प्रभु चरणों को प्राप्त किया है। त्रिलोकीनाथ | के शिष्य होने के नाते ये तदनुरूप ही तपस्या कर रहे हैं। आप व्यर्थ ही स्त्री स्वभाव वश मन में दुःखित हो रही हैं। छोड़ो इस मोह को, कर्त्तव्य का पालन करो। राजा के द्वारा प्रतिबोधित दुःखित हृदय भद्रा माता दोनों मुनियों को वंदना करके अपने घर पहुंची । श्रेणिक राजा भी वापिस लौटे। इधर धन्ना - शालिभद्र दोनों मुनि समाधि पूर्वक आयुष्य पूर्ण कर | तैतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्ध नामक वैमानिक देवलोक में पहुंचे। उत्तम देव बने। इस प्रकार संगम ने | सुपात्रदान से भविष्य में बढ़ने वाली अद्वितीय संपदाएँ प्राप्त की थी। इसलिए पुण्यार्थी मनुष्य को अतिथिसंविभागव्रत के यथाविधि पालन में सदा प्रत्यनशील रहना चाहिए ।। ८८ ।।
इस प्रकार बारह व्रतों पर विवेचन कर चुके हैं। अब उनके पालन में संभवित अतिचारों (दोषों) से रक्षा करने | हेतु अतिचारों का स्वरूप और उनके प्रकारों के विषय में कहते हैं
।२६०। व्रतानि सातिचाराणि, सुकृताय भवन्ति न । अतिचारास्ततो हेयाः पञ्च पञ्च व्रते व्रते ||८९ ।।
अर्थ :- अतिचारों (दोषों) के साथ व्रतों का पालन सुकृत का हेतु नहीं होता। इसलिए प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार हैं, उनका त्याग करना चाहिए ||८९ ||
व्याख्या :- अतिचार का अर्थ व्रत में आने वाला मालिन्य या विकार है। मलिनता (दोष) से युक्त व्रताचरण | पुण्यकारक नहीं होता। इसी हेतु से प्रत्येक व्रत के जो पांच-पांच अतिचार हैं, उनका त्याग करना आवश्यक है। यहां | एक शंका प्रस्तुत की जाती है कि 'अतिचार तो सर्वविरति में ही होते हैं; उसी में ही तो संज्वलन कषाय के उदय से ही अतिचार पैदा होते हैं! इसका समाधान करते हुए कहते हैं - यह ठीक है कि सभी अतिचार संज्वलनकषाय के उदय से होते हैं। उसमें पहले-पहले के १२ कषायों के उदय से मूल से उच्छेदन हो जाता है। ( आ. नि. ११२ ) और | संज्वलनकषाय का उदय सर्वविरतिगुणस्थान वाले के ही होता है; देशविरतिगुणस्थान वाले के तो प्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय होता है। इसलिए देशविरति श्रावक के व्रतों में अतिचार संभव नहीं है। यह बात सिद्धांत की दृष्टि से ठीक है। यहां उसकी न्यूनता होने से कुंथुए के शरीर में छिद्र के अभाव के समान है। वह इस प्रकार घटित होता | है - प्रथम अणुव्रत में पहले स्थूल प्राणियों के हनन का संकल्प से, फिर निरपराध का, फिर द्विविध-त्रिविध आदि विकल्पों के रूप में त्याग किया जाता है; इसलिए बहुत अवकाश दे देने पर अत्यंत सूक्ष्म हो जाने पर देशविरति का अभाव होने से देशविराधनारूप अतिचार लग ही कैसे सकता है? अतः उसका सर्वथा त्याग ही उचित है! महाव्रत बड़े | होने से उनमें अतिचार लगने की संभावना है। महाव्रतों में अतिचार हाथी के शरीर पर हुए फोड़े पर पट्टी बांधने के समान है। इसके उत्तर में कहते हैं - देशविरति गुणस्थान में अतिचार संभव नहीं है, यह बात असंगत है। श्री | उपासकदशांगसूत्र में प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार बताये हैं। उसके विभाग भी कहे हैं। परंतु वहां अतिचार न कहे हों, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। आगम में विभाग और अतिचार दोनों अलग-अलग माने गये हैं; इस दृष्टि से | कहा है कि 'सभी अतिचार संज्वलनकषाय के उदय से होते हैं।' यह बात यथार्थ है, परंतु वह सर्वविरतिचारित्र की | अपेक्षा से कही है; न कि सम्यक्त्व और देशविरतिचारित्र की अपेक्षा से । चूंकि सभी अतिचार संज्वलन के उदय से होते हैं, इत्यादि गाथा में ऐसी व्याख्या है कि संज्वलन - कषाय के उदय में सर्वविरतिचारित्र में अतिचार लगते हैं, शेष १२ कषायों के उदय में तो सर्वविरति के मूलव्रत का ही छेदन होता है । इस दृष्टि से देशविरतिचारित्र में अतिचार का अभाव नहीं है ।। ८९ ।।
अतः प्रथम व्रत के जो अतिचार बताये हैं, उन्हें कहते हैं
।२६१। क्रोधाद् बन्ध-छविच्छेदोऽतिभाराधिरोपणम् । प्रहारोऽन्नादिरोधश्चाहिंसायां परिकीर्तिताः ॥९०॥
अर्थ :- १. क्रोधपूर्वक किसी जीव को बांधना, २. उसके अंग काट देना, ३. उसके बलबूते से अधिक बोझ लाद देना, ४. उसे चाबुक आदि से बिना कसूर ही मारना पीटना और ५. उसका खाना-पीना बंदकर देना, ये पांच अतिचार अहिंसाणुव्रत के बताये गये हैं ।। ९० ।।
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