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तृतीय अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९२
अब तीसरा अस्तेयाणुव्रत के पांच अतिचार कहते हैं
| २६३ । स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं द्विड्राज्यलङ्घनम् । प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चास्तेयसंश्रिताः ॥९२॥ अर्थ :- १. चोर को चोरी करने की अनुमति या सलाह देना, २. चोरी करने में उसे सहायता देना अथवा चोरी करने के बाद उसको सहयोग देना, ३. अपने राज्य को छोड़कर शत्रु के राज्य में जाना अथवा राज्यविरुद्ध कार्य करना, ४ . अच्छी वस्तु बताकर खराब वस्तु देना, ५. खोटे बांट और खोटे गज ( नापतौल) रखना या नापतौल में गड़बड़ करना, ये पांच अस्तेयाणुव्रत के पांच अतिचार हैं ।।९२।।
व्याख्या :
अस्तेयाणुव्रत की प्रतिज्ञा 'स्वयं चोरी नहीं करूंगा, न कराऊंगा; मन-वचन-काया से', इस रूप में होती है। इसलिए मैं तो चोरी कर नहीं रहा हूं यह समझकर चोर को चोरी करने की प्रेरणा, सलाह या अनुमति देना | अथवा चोरी करने पर शाबाशी देना, प्रोत्साहन देना या पीठ ठोकना यह तृतीयव्रत का प्रथम अतिचार है। अथवा चोर को चोरी करने के लिए औजार, हथियार, कोश, कैंची आदि मुफ्त में देना या कींमत लेकर देना। यहां पर तीसरे व्रत की प्रतिज्ञा के अनुसार इस अतिचार से व्रती का व्रतभंग होता है। किसी को यह प्रेरणा देना कि आजकल तुम 'बेकार क्यों बैठे हो ? तुम्हारे पास खाना आदि न हो तो मैं दूंगा। तुम्हारा चुराया हुआ माल कोई नहीं खरीदेगा तो मैं खरीद | लूंगा।' इस प्रकार प्रेरणा देकर यह मान लेना कि मैं उसे चोरी करने की प्रेरणा थोड़े ही दे रहा हूं, मैं तो उसे आजीविका की प्रेरणा दे रहा हूं। इसमें व्रतपालन की भावना होने से सापेक्षता के कारण प्रथम अतिचार लगता है । तदानीतादानं | का मतलब है - चोर के द्वारा चुराकर लाई हुई वस्तु को ग्रहण करना। चोर के द्वारा चुराये हुए सोने, चांदी, कपड़े आदि को कम मूल्य में, मुफ्त में या गुप्त रूप से ले लेना भी चोरी कहलाती है, क्योंकि इससे स्वयं चोरी न करने पर भी | चोरी को प्रोत्साहन मिलता है, सरकार द्वारा दंडित होने का भय सवार रहता है और चोरी का माल लेने वाला यह समझता है कि 'मैं तो व्यापार कर रहा हूं, चोरी कहां कर रहा हूं!' इस प्रकार के परिणाम व्रत सापेक्ष होने से अचौर्यव्रत का भंग तो नहीं होता; किन्तु अंशतः पालन और अंशतः भंग होने से भंगाभंगरूप अतिचार लगता है। यह दूसरा अतिचार हुआ। शत्रुराजा के द्वारा निषिद्ध राज्य में जाना, राज्य की निश्चित की हुई सीमा या सेना के पड़ाव का उल्लंघन करना, निषिद्ध किये हुए शत्रुराज्य में जाना राज्यों की पारस्परिक गमनागमन की व्यवस्था का अतिक्रम करना, एक राज्य के निवासी का दूसरे राज्य में प्रवेश तथा दूसरे राज्य के निवासी का अन्यराज्य में प्रवेश करना स्वामी - अदत्त में शुमार | है। शास्त्र में स्वामी - अदत्त, जीव-अदत्त, तीर्थंकर - अदत्त और गुरु- अदत्त ये चार प्रकार के अदत्त (चौर्य) बताये हैं; | इनमें से यहां स्वामी - अदत्त नामक दोष लगता है। इस तरह राज्य के द्वारा निषेध होने पर भी दूसरे राज्य में जाने पर | चोर के समान दंड दिया जाता है। वस्तुतः राज्य की चोरी रूप दोष होने से यहां व्रतभंग होता है।
फिर भी दूसरे राज्य में अनुमति के बिना जाने वाले के मन में तो यही होता है कि मैं चोरी या जासूसी के लिए नहीं, व्यापार के लिए गया हूं। इस भावना के कारण व्रत सापेक्षता होने से व्रत रक्षण की उपेक्षा नहीं होती; तथापि लोकव्यवहार में वह चोर माना जाता है, राज्य द्वारा दंडित होता है, इसलिए यहां तीसरा अतिचार लगता है । ४. तत्प्रतिरूपकक्रिया अच्छी वस्तु में खराब मिलाकर अच्छी वस्तु के भाव में बेचना, मिलावट करना; बढ़िया वस्तु | दिखाकर दूसरी घटिया वस्तु दे देना । जैसे अच्छी किस्म के चावलों में हल्की किस्म के चावल मिला देना, घी में चर्बी, दूध में पानी, दवाईयों में खड़ियामिट्टी, हींग में गोंद या खैर आदि का रस, तेल में मूत्र, शहद में चासनी, उत्तम सोने या चांदी में दूसरी धातु मिलाकर बेचना इत्यादि व्यवहार प्रतिरूपकक्रिया है। अपहरण की हुई गाय आदि के सींग को | बदलने के लिए आग में पकाए हुए तरबूज के फल और भाप से नीचे झुकाना या तीच्छे बनाना जिससे मालिक पहचान | न सके। या और किसी चीज के ऊपरी ढांचे को बदल देना, तलवार आदि के म्यान बदलकर रख देना, ताकि मालिक न पहचान सके, इस तरकीब से इधर-उधर टेढ़ा करके स्वयं रख लेना या बेच देना तत्प्रतिरूपक व्यवहार नामक चौथा अतिचार है । ५. मानान्यत्व - जिससे कोई चीज नापी जाय, उसे मान कहते हैं। रत्ती, पल, तोला, माशा, भार, मन | सेर ( आजकल किलो), गज (मीटर) आदि बांट या गज आदि साधन कम तौल नाप के रखना अथवा ग्राहक को सौदा | देते समय तौल या नाप में गड़बड़ी करना । अथवा अधिक तौल या नाप के बांट या गज आदि रखकर दूसरे से अधिक
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