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प्रथम अणुव्रत के पांच अतिचारों पर वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९० व्याख्या :- अहिंसा रूप प्रथम अणुव्रत के ये पांच अतिचार हैं-गाय, भैंस आदि पशु को रस्सी आदि से इतना कसकर बांध देना कि खुल न सके, उसे हमेशा के लिए बांधकर नियंत्रण करना। परंतु अपने पुत्र आदि को हितशिक्षा की दृष्टि से या उद्दण्डता रोकने की दृष्टि से बंधन आदि में बांधना पड़े तो, वह अतिचार नहीं है, क्योंकि मूल श्लोक में 'क्रोधात्' शब्द पड़ा है, वह यही सूचित करता है कि अत्यंत प्रबल कषाय के उदय से जो बंधन डाला जा प्रथम अतिचार है। पुत्र आदि के पैर में या कहीं रसौली की गांठ या कोई फोड़ा हो गया हो और उसे कटवाना पड़े, | नश्तर लगवाना पड़े या चमड़ी काटनी पड़े तो उसे अतिचार नहीं कह सकते; क्योंकि उसके पीछे दर्द मिटाने की हितैषिता होती है, क्रोध-द्वेषादि नहीं होता। इस कारण 'क्रोधात्' शब्द प्रत्येक अतिचार के साथ समझ लेना चाहिए। अतः क्रोध या द्वेषवश किसी का अंग या चमड़ी आदि काट लेना या सिर आदि फोड़ देना द्वितीय अतिचार है। गाय, बैल, ऊंट, गधा, मनुष्य आदि किसी के भी कंधे, पीठ या सिर पर अथवा गाड़ी या गाड़ों में ढोया न जा सके, इतना बलबूते से ज्यादा बोझ लाद देना, तीसरा अतिचार है। क्रोध या द्वेषवश लाठी, डंडा, चाबुक या किसी हथियार अथवा चाकू, छुरा आदि से किसी भी निरपराध जानवर या मनुष्य को मारना-पीटना, लोहे का आरा भौंक देना, ढेले, पत्थर आदि से मारना इत्यादि चौथे अतिचार के अंतर्गत है। इसी प्रकार क्रोध, द्वेष आदि से किसी पशु या मनुष्य को अन्नपानी या घास-चारा न देना पांचवां अतिचार है। इस विषय में आवश्यकचूर्णि में विधि बतायी गयी है-बंधन दो पाये मनुष्य का तथा चौपाये पशु का होता है। लेकिन वह भी सार्थक और निरर्थक दो प्रकार का है। निरर्थक बंधन तो कथमपि उचित नहीं है; सार्थक बंधन भी दो प्रकार का है-सापेक्ष और निरपेक्ष। निरपेक्ष बंधन त्याज्य है।
साक्षेपबंधन वह है, जिसके अंतर्गत कषायादिवश बंधन नहीं होता; किन्तु निरपराध को रस्सी आदि से बांधना भी पड़े तो.गांठ मजबूत न लगाए, ढीली-सी गांठ लगाए; ताकि समय आने पर झटपट और आसानी से खोली या काटी जा सके। निरपेक्ष उसे कहते हैं जो गांठ अत्यंत कसकर मजबूती से लगायी गयी हो, ताकि वह आफत के समय खोली न जा सके। कई बार गांठ इतनी मजबूती से लगा दी जाती है कि आग लगने पर भी बेचारा पशु उसे तोड़कर भाग नहीं सकता, वहीं जल मरता है। दो पैर वाले मनुष्यों में दास-दासी, चोर, पढ़ने में आलसी पुत्र आदि को हितशिक्षा की दृष्टि से बांधा जाता है। ताकि समय आने पर आसानी से उस बंधन को खोला जा र है। निरपेक्ष बंधन में तो इस प्रकार का कोई विचार नहीं किया जाता। इसलिए चाहे दोपाये प्राणी (मनुष्य) हो, चाहे चौपाये जानवर, निरपेक्ष बंधन हर हालत में त्याज्य है, सापेक्ष बंधन क्षम्य है। बल्कि पशुओं एवं मनुष्यों को इस प्रकार के स्थान में रहने की आदत डाल दें, जिससे वे स्वतः ही बिना बंधन के रह सके। अंगच्छेदन या चमड़ी का छेदन भी सापेक्ष-निरपेक्ष दोनों तरह का समझ लेना चाहिए। किसी के हाथ, पैर, नाक आदि अवयव निर्दयतापूर्वक काट लेना या आंखें फौड़ देना निरपेक्ष छेदन है, वह अच्छा नहीं है। परंतु शरीर में फोड़ा हो गया हो, उसमें से मवाद बहती है या पक गया हो तो उस अंग के अमुक हिस्से का नश्तर लगवाकर इलाज कराना या उस हिस्से को जला देना सापेक्ष |अंगछेद है। अतिभार लादना भी अहिंसा की दृष्टि से ठीक नहीं। अव्वल तो श्रावक को दोपाये या चौपाये प्राणियों वाली गाड़ी या सवारी द्वारा अपनी आजीविका छोड़ देनी चाहिए। यदि और कोई रोजगार न हो तो दो पैर वाले मनुष्य जितना बोझ अपने आप उठा सकें, उतना ही उनसे उठवाना चाहिए। चौपाये जानवरों को हल, गाड़ी, रथ आदि में जोतने पर उतना ही वजन लादना चाहिए, जितना वे आसानी से ढो सके, या ले जा सके। और उन्हें समय पर छोड़ भी देना चाहिए। प्रहार भी दो प्रकार का है, सापेक्ष और निरपेक्ष। अविनीत और उद्दण्ड या दुराचारी अथवा चोर को कदाचित् सजा देनी पड़े तो भी निर्दयता या द्वेष से नहीं, परंतु यथायोग्य मामूली प्रहार या डंडा आदि दिखाकर भी उसे सीधे रास्ते पर चलाया या लाया जा सकता है। सापेक्ष प्रहार में अपने पुत्रादि को कहा न मानने या उइंडता करने पर कदाचित् मारना भी पड़े तो उसके मर्मस्थान को छोड़कर अंर्तहृदय में दया रखकर लात, धूंसे या थप्पड़ आदि एक या दो बार हलके-से मारे। निर्दयता से. द्वेष या रोषवश मर्मस्थान पर मारना निरपेक्ष प्रहार है, वह उचित नहीं है। आहारपानी का निरोध भी सार्थक-निरर्थक एवं सापेक्ष-निरपेक्ष-रूप से ४ प्रकार का है। किसी का भोजनादि सर्वथा बंद कर देने से कभी-कभी वह भूख-प्यास से पीड़ित होकर आर्तध्यान करता हुआ मर जाता है। इसलिए शत्रु या अपराधी के बारे
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