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कुपात्र और अपात्र को छोड़कर पात्र और सुपात्र को दान देना सफल और सुफलवान है योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८७ गुप्सियों से विभूषित, दांत कुरेदने के लिए तिनके जैसी परवस्तु के प्रति भी लालसा नहीं रखने वाले; मान-अपमान में, लाभ-हानि में, सुख-दुःख में, निन्दा-प्रशंसा में, हर्ष-शोक में समभावी, कृत, कारित (करना, कराना) और अनुमोदन तीनों प्रकारों से आरंभ से रहित, एकमात्र मोक्षाभिलाषी, संयमी साधु-साध्वी ही उत्कृष्ट सुपात्र हैं। सम्यक्त्व | सहित बारह व्रतों के धारक या उससे कम व्रतों के धारक देशविरतिसंपन्न एवं साधुधर्म की प्राप्ति के अभिलाषी सद्गृहस्थ मध्यम पात्र माने जाते हैं, और केवल सम्यक्त्व-धारक, अन्यव्रतों के पालन करने या ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने में असमर्थ एवं तीर्थ की प्रभावना करने में प्रत्यनशील व्यक्ति जघन्य पात्र समझे जाते हैं। ___कुशास्त्रश्रवण से उत्पन्न हुए वैराग्य के कारण परिग्रह से रहित, ब्रह्मचर्यप्रेमी, चोरी, असत्य, हिंसा आदि पापों से दूर, अपनी गृहीत प्रतिज्ञा के पालक, मौनधारक, कंदमूलफलाहारी, भिक्षाजीवी, जमीन पर या खेत में पड़े हुए दानों को इकट्ठा करके उनसे निर्वाह करने वाले, पत्रभोजी, गैरिकवस्त्रधारी या निर्वस्त्र, नग्न, शिखाधारी या जटाधारी, मस्तकमुंडित, एकदंडी या त्रिदंडी, मठ या अरण्य में निवास करने वाले, गर्मियों में पंचाग्नितप के साधक, शर्दी में शीत-सेवन करने वाले, शरीर पर भस्म रमाने वाले, खोपड़ी या हड्डी आदि के आभूषण-धारक, अपनी समझ से धर्मपालक, किन्तु मिथ्यादृष्टिशास्त्रदूषित, जिनधर्मद्वेषी, विवेकमूढ़, कुतीर्थी कुपात्र माने जाते हैं। प्राणियों के प्राणहरण करने में तत्पर, असत्यवादी, परधनहरणकर्ता, गधे के समान प्रबल कामासक्ति में निमग्न, रात-दिन आरंभ परिग्रह में मशगूल, कदापि संतोष धारण न करने वाले, मांसाहारी, शराबी, अतिक्रोधी, लड़ाई-झगड़े करने-कराने में आनंदित रहने वाले, केवल कुशास्त्र पाठक, सदा पंडितमन्मय, तत्त्वतः नास्तिक व्यक्ति अपात्र माने गये हैं। इस प्रकार कुपात्र और अपात्र को छोड़कर मोक्षाभिलाषी, सुबुद्धिशाली, विवेकी आत्मा पात्र को ही दान देने की प्रवृत्ति करते हैं।
पात्र को दान देने से दान सफल होता है, जबकि अपात्र या कुपात्र को दिया गया दान सफल नहीं होता। पात्र को दान करना धर्मवृद्धि का कारण है, जबकि अपात्र को दान अधर्मवृद्धि का कारण है। सर्प को दूध पिलाना जैसे विषवृद्धि करना है, वैसे ही कुपात्र को दान देना भववृद्धि करना है। कड़वे तुंबे में मधुर दूध भर देने पर वह दूषित एवं पीने के अयोग्य हो जाता है, वैसे ही कपात्र या अपात्र को दिया गया दान भी दषित हो जाता है। कपात्र या अपात्र को समग्र पृथ्वी का दान भी दे दिया जाय तो भी वह दान फलदायक नहीं होता, इसके विपरीत, पात्र को श्रद्धापूर्वक लेशमात्र (एक कौरभर) आहार दिया जाय तो भी वह महाफलदायी होता है। अतः मोक्षफलदायी दान के विषय में पात्र-अपात्र का विचार करना आवश्यक होता है। परंतु तत्त्वज्ञानियों ने दया, दान करने का निषेध कहीं भी नहीं किया। पात्र और दान, शुद्ध और अशुद्ध; यों चार विकल्प (भंग) करने पर 'पहला विकल्प (पात्र भी शुद्ध और दान भी शुद्ध) शुद्ध है। दूसरा विकल्प (पात्र शुद्ध, किन्तु दान अशुद्ध) अर्धशुद्ध है, तीसरा विकल्प (पात्र अशुद्ध, मगर दान शुद्ध) भी अर्धशुद्ध है, और चौथा विकल्प (पात्र और दान दोनों अशुद्ध) पूर्णतया अशुद्ध है। वास्तव में देखा जाय तो प्रथम विकल्प के सिवाय शेष तीनों विकल्प एक तरह से, विचारशून्य और निष्फल है। दान देने से भोगों की प्राप्ति होती है; यह विकल्प भी अशुद्ध दान का प्रतीक होने से विचारशून्य है। यद्यपि योग्य पात्र को दिये गये दान का फल शुद्ध भोग की प्राप्ति है, परंतु वह दान भोग प्राप्ति की कामना से किया गया दान न होने से शुद्ध ही है और सचमुच दान का केवल भोग प्राप्ति रूपी फल भी कितना तुच्छ और अल्प है! शुद्ध दान का मुख्य और महाफल तो मोक्ष प्राप्ति है। जैसे खेती करने का मुख्य फल तो धान्य प्राप्ति है, घास प्राप्ति रूपी फल जो आनुषंगिक और अल्प है; वैसे ही पात्र को दिये गये शुद्ध दान का मुख्य फल भी मोक्ष प्राप्ति है, भोग प्राप्ति रूप फल तो अल्प और आनुषंगिक है। पात्र को शुद्ध दानधर्म से इसी चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर के प्रथम भव में धन्य सार्थवाह ने सम्यक्त्व (बोधिबीज) प्राप्त कर मोक्ष रूपी महाफल| प्राप्त किया। तीर्थंकर ऋषभदेव को प्रथम पारणे पर जिस राजभवन में भिक्षा दी गयी पर प्रसन्न होकर देवों ने तत्काल पुष्पवृष्टि की और 'अहो दानं' की घोषणा की। इस प्रकार अतिथिसंविभागवत के संबंध में काफी विस्तार से | कह चुके। अतः देय और अदेय, पात्र और अपात्र का विवेक करके यथोचित दान देना चाहिए ।।८७।। ___ यद्यपि विवेकी श्रद्धालुओं को सुपात्रदान देने में साक्षात् या परंपरा से मोक्षफल प्राप्त होता है; तथापि पात्रदान तो हर हालत में भद्रिकजीवों के लिए उपकारक है, इस दृष्टि से पात्रदान के प्रासंगिक फल का वर्णन करते हैं
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