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सुपात्रदान से दरिद्र संगम ग्वाला श्रेष्ठिपुत्र शालिभद्र बना
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८८ ही एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जैसे पर्वतभूमि वैडूर्यरत्न को जन्म देती है। शुभ मुहूर्त में माता-पिता ने स्वप्न के अनुसार | पुत्र का नाम शालिभद्र रखा। पांच धायों के संरक्षण में बालक का लालन-पालन होने लगा। चंद्रमा की तरह क्रमशः बढ़ते हुए बालक जब आठ वर्ष का हुआ तो माता-पिता ने उसे कलाचार्य के यहां भेजकर विद्याओं और कलाओं का अभ्यास कराया । यौवन की देहली पर पैर रखने पर शालिभद्र भी युवतीवल्लभ बना। अब शालिभद्र अपने हमजोली | मित्रों के साथ क्रीड़ा करता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो दूसरा ही प्रद्युम्नकुमार हो । नगर के कई सेठों ने आकर भद्रापति श्री गोभद्र सेठ के सामने अपनी-अपनी कुल ३२ कन्याएँ शालिभद्र को देने का प्रस्ताव रखा और स्वीकार करने की प्रार्थना की, जिसे गोभद्रसेठ ने सहर्ष स्वीकारकर ली। तत्पश्चात् गोभद्र सेठ ने शुभमुहूर्त में खूब धूमधाम से उन | सर्वलक्षणसम्पन्न ३२ कन्याओं के साथ शालिभद्र का विवाह किया। विवाह के पश्चात् शालिभद्र अपने मनोहर महल में | उन ३२ कन्याओं के साथ आमोद-प्रमोद करते हुए ऐसा लगता था मानो इंद्र शची आदि के साथ अपने मनोहर विमान में आमोद-प्रमोद कर रहा हो। उस विलासपूर्ण मोहक वातावरण के आनंद में डूबे हुए शालिभद्र को यह पता ही नहीं चलता था, कब सूर्योदय हुआ और कब रात बीती ! उसके लिए भोगविलास की समग्र सामग्री माता-पिता स्वयं जुटाते थे। समय आने पर गोभद्रसेठ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति और घरबार, कुटुंब वगैरह छोड़कर भगवान् महावीर के चरणों में मुनिदीक्षा ले ली। संयम की आराधना करते हुए अंतिम समय निकट जानकर उन्होंने अनशन ग्रहण किया और समाधिमरण पूर्वक आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में पहुंचे। वहां अवधिज्ञान से शालिभद्र को अपना पुत्र जानकर उसके पुण्य से आकर्षित एवं पुत्र वात्सल्य से ओतप्रोत होकर गोभद्रदेव प्रतिदिन उसके तथा उसकी बत्तीस पत्नियों के लिए | दिव्य वस्त्र आभूषण आदि अर्पित करता था । मनुष्योचित जो भी कार्य होता, उसे भद्रा सेठानी पूर्ण करती थी। यह सब भोगसामग्री पूर्वकृत दान के प्रभाव से मिली थी।
एक बार कुछ विदेशी व्यापारी रत्नकंबल लेकर राजगृह में बेचने के लिए आये । राजा श्रेणिक को उन्होंने वे रत्नकंबल दिखायें, लेकिन बहुत कीमती होने से उसने खरीदने से इन्कार कर दिया । निराश होकर व्यापारी वापिस लौट | रहे थे कि शालिभद्र की माता भद्रा सेठानी ने उन्हें अपने यहां बुलाया और उन्हें मुंहमांगी कीमत देकर सब के सब | रत्नकंबल खरीद लिये। जब चिल्लणा रानी को पता लगा कि राजा ने एक भी रत्नकंबल नहीं खरीदा; तब उसने श्रेणिक | राजा से कहा - प्राणनाथ! चाहे वह महामूल्यवान् हो, फिर भी एक रत्नकंबल तो मेरे लिये अवश्य ही खरीद लीजिए । | अतः श्रेणिक राजा ने उन व्यापारियों से पहले कही हुई कीमत में ही एक रत्नकंबल दे देने को कहा। इस पर व्यापारियों ने कहा- राजन् ! वे सब रत्नकंबल अकेली भद्रा सेठानी ने ही खरीद लिये हैं। अब हमारे पास एक भी रत्नकंबल नहीं | है। श्रेणिकनृप ने एक कुशल सेवक को मूल्य देकर भद्रा सेठानी से एक रत्नकंबल खरीदकर ले आने के लिए भेजा। उसने भद्रा सेठानी से खरीदे हुए मूल्य में एक रत्नकंबल मांगा। इस पर भद्रा सेठानी ने कहा- मैंने तो रत्नकंबलों के आधे-आधे टुकड़े करके अपनी ३२ पुत्र-वधुओं (शालिभद्र की पत्नियों) को दे दिये हैं। उन्होंने उनसे पैर पोंछकर फेंक | दिये होंगे। यदि राजा को उनकी खास जरूरत हो तो इस्तेमाल किये हुए दो टुकड़ों के रूप में रत्नकंबल तो मिल जायेंगे । | अतः राजा से पूछकर ले जाना चाहो तो ले जाओ। सेवक ने जाकर सारा वृत्तांत राजा श्रेणिक से कहा । पास में बैठी हुई रानी चिल्लणा ने भी यह बात सुनी तो उनसे कहा - प्राणनाथ ! देखिये ! है न हमारे में और शालिभद्र वणिक् में पीतल और सोने का - सा अंतर? श्रेणिक राजा सुनकर झेंप गये । उन्होंने कुतूहलवश शालिभद्र को बुला लाने के लिए उस पुरुष को भेजा । सेवक ने भद्रा से जब यह बात कही तो उसने स्वयं राजा की सेवा में पहुंचने का कहा । भद्रासेठानी ने स्वयं | राजा की सेवा में पहुंचकर सविनय निवेदन किया - महीनाथ ! मेरा पुत्र इतना सुकुमार है कि वह कभी महल से बाहर | कहीं जाता नहीं है। इसलिए आप मेरे यहां पधारकर शालिभद्र को दर्शन देने की कृपा करें। आश्चर्यचकित राजा श्रेणिक | ने शालिभद्र के यहां जाना स्वीकार किया। भद्रा ने राजा से कुछ समय ठहरकर पधारने की विनती की। घर आकर उसने | अपने सेवकों द्वारा घर से लेकर राजमहल तक का सारा रास्ता और बाजार की दुकानें रंगबिरंगे वस्त्रों और माणिक्यरत्नों से सुसज्जित करवायी । दूकानों की शोभा ऐसी लगती थी, मानो देवों ने ही सुसज्जित की हों । राजमार्ग और बाजार की रौनक देखते हुए राजा श्रेणिक शालिभद्र के यहां पहुंचे और विस्मय पूर्वक आंखें फाड़े हुए भद्रा के महल की अद्भुत
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