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सुपात्र दान का सुफल - शालिभद्र
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८८
। २५९। पश्य सङ्गमको नाम, सम्पदं वत्सपालकः । चमत्कारकरीं प्राप, मुनिदानप्रभावतः ॥८८॥ देखो, बछड़े चराने वाले (ग्वाले) संगम ने मुनिदान के प्रभाव से आश्चर्यजनक चमत्कारी संपत्ति प्राप्त कर ली ॥८८॥
अर्थ
व्याख्या :- 'देखो' शब्द यहां भद्रजनों को दान के सम्मुख करने के लिए प्रयुक्त किया गया है। संगम नामक | पशुपालक ने मुनि को दान देने के प्रभाव से चमत्कृत कर देने वाली अद्भुत संपत्ति प्राप्त कर ली थी। यद्यपि संगम को | परंपरा से मोक्षफल प्राप्त होता है, तथापि यहां प्रासंगिक फल का वर्णन होने से मोक्षफल का जिक्र नहीं किया। संगम का चरित्र संप्रदाय परंपरा से ज्ञातव्य है; वह इस प्रकार है
श्रद्धा पूर्वक सुपात्रदानदाता-संगम :
मगधदेश में अनेकविध रत्नों से देदीप्यमान, लक्ष्मी के कुलगृह - समान राजगृह नगर में उन दिनों इंद्रशासन के | समान विभिन्न राजाओं द्वारा मान्य सम्राट् श्रेणिक का शासन था। राजगृह- प्रखंड में ही शालि नामक गांव में छोटे-से | परिवार वाली धन्या नाम की सम्पन्न महिला रहती थी। उस पर आफत आ पड़ने और प्रियजनों का वियोग हो जाने से वह अपने इकलौते पुत्र संगम को लेकर राजगृह आ गयी। राजगृह में रहते हुए संगम कुछ नागरिकों के बछड़े चराकर | अपनी रोजी चलाता था । 'गरीब बालक के लिए यही अनुरूप और सात्त्विक आजीविका है।' धन्या आसपास के धनिकों | के यहां छोटा-मोटा गृहकार्य करके कुछ कमा लेती थी । यों मां-बेटा दोनों आनंद से जीवन बिता रहे थे। एक बार किसी | पर्वोत्सव के दिन सब के यहां खीर बनी देखकर बालक संगम ने भी अपनी मां से खीर मांगी। माता ने कहा- बेटा ! | हम अत्यंत गरीब है, खीर हमारे यहां कहां से हो सकती है? पर बालक इस बात को न समझकर खीर खाने के लिए | मचल पड़ा । धन्या अपना पुराना वैभव और पुत्र के प्रति माता के दायित्व को याद करके सिसकियाँ भरकर जोर-जोर | से रोने लगी। उसका हृदय विदारक करुण रुदन सुनकर पड़ौस की संपन्न घर की महिलाएँ दौड़ी हुई आयी और उससे इस प्रकार रोने और दुःखित होने का कारण पूछा। पहले तो उसने संकोचवश स्पष्ट नहीं बताया, परंतु बाद में | भद्र महिलाओं के अत्याग्रह पर धन्या ने गद्गद् स्वर में अपनी आपबीती और अपना दुःखड़ा कह सुनाया। उसके | स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे, इस दृष्टि से भद्रमहिलाओं ने मिलकर सम्मान पूर्वक उसे दूध, चावल, खांड आदि खीर | बनाने की सब सामग्री दे दी। धन्या ने हर्षित होकर खीर बनायी और एक थाली में संगम के लिए परोसकर और ठंडी हो जाने पर खा लेने का कहकर किसी काम से वह बाहर चली गयी। बालक थाली में खीर ठंडी कर रहा था, उसी | समय संसार समुद्र से तरने के लिए नौका के समान एक मासिक (एक महिने का तप करने वाले) उपवासी महामुनि पारणे के लिए भिक्षा लेने पधार गये। मुनि को देखते ही बालक संगम बड़ा प्रभावित हुआ। उसने सोचा- अहो! यह तो | सचेतन चिंतामणिरत्न है, या जंगम कल्पवृक्ष है, अथवा पशु-वृत्ति से रहित कोई कामधेनु है? मेरे ही भाग्य से आज | यह सर्वश्रेष्ठ मुनि पधारे हैं! नहीं तो मेरे जैसे दीन-हीन के यहां ऐसे उत्तमपात्र का आगमन भला कैसे हो सकता था ? | मेरे किसी प्रबल पुण्योद्रय के फल स्वरूप ही आज यह चित्त वृत्ति और पात्र रूप त्रिवेणीसंगम हुआ है? यों उत्कट | विचार करके झटपट खीर की थाली उठाकर सारी की सारी मुनिवर के पात्र में उड़ेल दी। मुनिराज बस, बस करते रहे, | लेकिन बालक ने वह अतिकठिनता से प्राप्त, दुर्लभ सारी खीर प्रबल भावना से उन तपस्वी मुनिराज को दे दी। | महाकरुणाशील मुनि ने भी उपकार बुद्धि से अपने भिक्षापात्र में ले ली और आहार लेकर चले गये। धन्या आसपास | के घरों के आवश्यक काम निपटाकर जब घर लौटी और उसने देखा कि थाली साफ है, तो उसने उस थाली में और खीर परोसी, जिसे संगम झटपट खा गया । धन्या को यह पता नहीं था कि संगम ने वह खीर मुनि को दे दी है। गर्मागर्म | खीर खा जाने से संगम को रात में अजीर्ण और पेट में जोर का दर्द हो गया, फलतः मुनि को दान देने का स्मरण करते | करते उसका शरीर छूट गया। मुनिदान के प्रभाव से संगम का जीव राजगृह नगर में गोभद्र सेठ की पत्नी भद्रा के गर्भ में आया। भद्रा सेठानी ने स्वप्न में शालि (धान्य) से लहलहाता और पकी हुई बेलें लगा हुआ खेत देखा। अपने पति से सेठानी ने स्वप्न वृत्तांत कहा। सेठ ने सुना तो हर्षित होकर कहा -प्रिये ! यह शुभ स्वप्न तुम्हारे पुत्र होने का सूचक है । भद्रा सेठानी को कुछ दिनों बाद दोहद पैदा हुआ कि 'मैं अनेक बार दान-धर्म के कार्य करूं ।' भद्रबुद्धि गोभद्र सेठ ने भी उसे सहर्ष पूर्ण किया। भद्रा ने समय पूर्ण होने पर अपनी कांति से मातृ-मुख को विकसित करने वाले ठीक वैसे
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