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भोगों के अथाहसमुद्र में डूबा हुआ शालिभद्र त्याग की ओर
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८८ शोभा को निहारते हुए उसमें प्रविष्ट हुए। वह महल भी सोने के खंभों पर इंद्रनीलमणियों के तोरण से सुशोभित था। उसका दरवाजा मोतियों के स्वस्तिकों की कतार से शोभायमान था। उसका आंगन भी उत्तमोत्तम रत्नों से जटित था। दिव्यवस्त्रों का चंदोवा वहां बंधा हुआ था। सारा महल सुगंधित द्रव्यों की धूप से महक रहा था। वह महल ऐसा मालूम होता था, मानो पृथ्वी पर दूसरा देवविमान हो। भद्रा राजा को चौथी मंजिल पर अपने महल में सिंहासन पर बिठाकर सातवीं मंजिल पर स्थित शालिभद्र के महल में पहुंची और उससे कहा-पुत्र! अपने यहां श्रेणिक आये हैं, उन्हें देखने हेतु कुछ समय के लिए तुम नीचे चलो। शालिभद्र ने कहा-माताजी! आप सब कुछ जानती हैं और जो चीज अच्छी लगती है, खरीदती है। मैं जाकर क्या करूंगा? पसंद हो तो महंगा-सस्ता जैसे भी मिले, खरीद लो और भंडार में रखवा दो। मां ने वात्सल्य प्रेरित होकर कहा-बेटा! यह खरीदने की वस्तु नहीं है। यह तो राजगृह का नरेश है, जो तुम्हारा और मेरा सबका नाथ है। चल कर तुमसे मिलने आया है, तो चलो। माता के मुंह से 'नाथ' शब्द सुनते ही शालिभद्र के भावुक हृदय में अंतर्मथन चलने लगा-क्या मेरे सिर पर भी नाथ है? जब तक मैं विषय-भोगों की, महल एवं पत्नी आदि सांसारिक पदार्थों की गुलामी करता रहूंगा, तब तक निश्चय ही मेरे सिर पर नाथ रहेगा। धिक्कार है मुझे! क्या मैं इन सब भोगों का गुलाम बना रहूंगा? मैं कब तक अपने सिर पर नाथ बनाएँ रखूगा? क्या मैं अपने अंदर की पड़ी हुई | असीम शक्ति का स्वामी नहीं हूं या नहीं बन सकता? मेरे पिताजी ने भी भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षित होकर अपनी असीम शक्तियों को जगाया था, मैं भी सर्प के फनों के समान भयंकर भोगों को तिलांजलि देकर शीघ्र ही भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षित होकर अपना स्वामी स्वयं बनूंगा, अपने अंदर सोई हुई अनंतशक्ति को जगाऊंगा। यों संवेगपूर्वक चिंतन करता हुआ शालिभद्र माता के अत्याग्रह से अपनी समस्त पत्नियों के साथ श्रेणिक राजा के पास आया। उसने राजा को प्रणाम किया। श्रेणिक राजा ने आते ही शालिभद्र को पुत्र के समान छाती से लगाया, वात्सल्यवश उसका मस्तक सूंघा और अपनी गोद में बिठाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराया। राजा की गोद में | बैठा हुआ शालिभद्र कारागार के बंदी-सी घबराहट महसूसकर रहा था। उसके शरीर में राजा के स्पर्श से पसीना छूटने लगा, आंखों से आंसू टपकने लगे। यह देखकर भद्रा ने राजा से कहा-देव! अब इसे छोड़ दीजिए। क्योंकि मनुष्य होकर भी यह अत्यंत कोमल है। यह इतना नाजुक है कि जरा-सा भी खुर्दरा स्पर्श तथा मनुष्य की पुष्पमाला की गंध तक | भी नहीं सह सकता। देवलोक में गये हुए इसके पिता प्रतिदिन इसके और इसकी पत्नियों के लिए वहां से दिव्य वस्त्र, आभूषण एवं विलेपन आदि पदार्थ भेजते हैं। यह सुनते ही राजा ने शालिभद्र को छोड़ दिया। वह वहां से छूटकर सीधा सातवीं मंजिल पर अपने महल में पहुंच गया। भद्रा ने श्रेणिक राजा से अपने यहां भोजन करने की प्रार्थना की। भद्रा के दाक्षिण्य एवं विनय से प्रभावित होकर राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की। भद्रा ने अपने सेवक-सेविकाओं को आदेश देकर सभी प्रकार की उत्तमोत्तम भोजनसामग्री झटपट तैयार करवायी। धनाढ्यों का कौन-सा काम ऐसा है, जो धन से सिद्ध नहीं होता? इधर उसने तेलमालिश एवं स्नान कराने में कुशल सेवकों को आदेश देकर सुगंधचूर्णमिश्रित बढ़िया तेल की मालिश करवायी, फिर स्नान करवाया। स्नान करते समय राजा की अंगुली से अंगूठी जलक्रिड़ावापिका में गिर पड़ी। राजा उसे इधर-उधर ढूंढने लगे। भद्रा ने यह स्थिति देखकर फौरन दासी को उस वापिका से दूसरी वापिका में पानी खाली करने का आदेश दिया। वापिका के खाली होते ही राजा की काली श्याह-सी अंगूठी दूसरे आभूषणों के साथ दिखायी दी। राजा यह देखकर और भी आश्चर्य में पड़ गया। विस्मित होकर राजा ने दासी से पूछा-ये सब क्या है? दासी ने सविनय उत्तर दिया-देव! शालिभद्र और उसकी पत्नियों नहा धोकर प्रतिदिन नये आभूषण पहनते हैं और पुराने आभूषणों को इसमें डाल देते हैं। राजा ने विस्मय-विमुग्ध होकर सोचा-शालिभद्र सर्वथा धन्य है, मैं भी धन्य हूं कि मेरे राज्य में ऐसा भाग्यशाली भी हैं। तत्पश्चात् राजा ने सपरिवार वहां भोजन किया। तदंतर भद्रामाता ने अद्भुत चमकीले वस्त्राभूषण आदि भेंट देकर ससम्मान राजा को विदा दी। राजा श्रेणिक भी अत्यंत प्रभावित होकर वहां से राजमहल को लौटा। 1. पत्नी सहित आने का वर्णन अन्य कथानकों में नहीं है।
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