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श्रमणोपासक के लिए साधुसाध्वियों को आहारादि दान देने का महत्त्व
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८७ 'श्रमणोपासक के लिए अन्न, वस्त्र, जल आदि साधुसाध्वियों के योग्य एवं धर्मसहायक-संयमोपकारक वस्तुओं का ही दान देने को कहा गया है; सोना, चांदी आदि जो वस्तुएं धर्मसहायक न हों, जिनके देने से काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि बढ़े, चारित्र का नाश हो, ऐसी वस्तुएँ साधुसाध्वियों को कदापि नहीं देनी चाहिए। जिस जमीन को खोदने से अनेक जीवों का संहार होता है, ऐसी पृथ्वी के दान की करुणापरायण लोग प्रशंसा नहीं करते। जिन शस्त्रों से महाहिंसा होती है, उन शस्त्रों के कारण रूप लोहे का दान श्रावक क्यों करेगा? जिसमें हमेशा अनेक समूर्छिम त्रसजीव स्वतः पैदा होते हैं और मरते हैं. ऐसे तिल के दान की अनमोदना कौन करेगा? अफसोस है. लौकिक पर्वो के अवसर पर पुण्यार्जनहेतु मौत के मुंह में पड़ी हुई अर्धप्रसूती गाय जो दान करता है, उसे धार्मिक कहा जाता है। जिसकी गुदा में अनेकों तीर्थ माने हैं, जो मुख से अशुचिपदार्थो का भक्षण करती है, उस गौ को परमपवित्र मानने वाले अज्ञानी धर्म के हेतु गो दान करते हैं। जिस गाय को दुहते समय, सदा उसका बछड़ा अत्यंत पीड़ित होता है और जो अपने खुर आदि से जंतुओं का विनाश कर डालती है, उस गाय का दान देने से भला कौन-सा पुण्य होगा? स्वर्णमयी, रजतमयी, तिलमयी और घृतमयी विभिन्न गायें बनाकर दान देने वाले को भला क्या फल मिलेगा? कामासक्ति पैदा करने वाली, बंधुस्नेह रूपी वृक्ष को जलाने के लिए दावानल के समान, कलियुग की कल्पलता, दुर्गति के द्वार की कुंजी के समान, मोक्षद्वार की अर्गला के तुल्य, धर्मधन का हरण करने वाली, आफत पैदा करने वाली कन्या का दान दिया जाता है; और कहा जाता है कि वह कन्यादान कल्याण का हेतु होता है। भला यह भी कोई शास्त्र है? विवाह के समय मूढ़मनुष्य वरकन्या को लौकिक प्रीति की दृष्टि से नहीं, अपितु धर्मदृष्टि से जो वस्त्राभूषण आदि दान रूप में देते हैं, क्या वे धर्मवर्द्धक होते हैं? वास्तव में धर्मबुद्धि से किया गया ऐसा दान तो राख में घी डालने के समान समझना चाहिए। संक्रांति, व्यतिपात, वैधृति, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वो पर जो उदरंभरी, लोभी, अपने भावुक यजमानों से दान दिलाते हैं, वह तो सिर्फ भोले-भाले लोगों को ठगने का-सा व्यापार है। जो मंदबुद्धि लोग अपने मृत स्वजन की तृप्ति के लिए उनके नाम से दान करते-कराते हैं, वे भी मूसल में नये पत्ते अंकुरित करने (फूटने) की इच्छा से उसे पानी सींचते हैं। यहां ब्राह्मणों को भोजन कराने से यदि परलोक में पितरों की तृप्ति हो जाती हो तो फिर यहां एक के भोजन करने से दूसरे की तृप्ति या पुष्टि क्यों नहीं हो जाती? पुत्र के द्वारा दिया हुआ दान यदि उसके मृत पिता आदि को मुक्ति दिलाने वाला हो तो फिर पुत्र तपस्या करे उसके फल स्वरूप उसके पिता की भी मुक्ति हो जानी चाहिए। गंगानदी या गया आदि तीर्थों में दान करने से पितर तर जाते हैं, तो फिर झुलसे हुए पेड़ में हरे-भरे पत्ते अंकुरित करने के लिए उसे सिंचन करना चाहिए। इस लोक में लकीर का फकीर (गतानुगतिक) बनकर कोई जो कुछ भी मांगे, उसे धर्म या पुण्य की बुद्धि से तो नहीं दिया जाना चाहिए। वास्तव में पुण्य या धर्म तो ऐसे त्यागी को चारित्रवर्द्धक, संयमोपकारक पदार्थ के दान से होता है।
और पुण्य या भाग्य प्रबल हों, तभी किसी को कुछ मिलता है। पुण्य न हो तो किसी से भी कुछ मांगना या याचना करना वृथा है। सोने-चांदी की देवमूर्ति बनाकर मनौती करने से वह देवबिंब उसकी रक्षा करेगा, यह महान् आश्चर्य जनक बात है। क्योंकि आयुष्य के क्षण पूर्ण होने पर कोई भी देवता किसी की रक्षा नहीं कर सकते। बड़ा बैल हो या बड़ा बकरा, यदि उसे मांसलोलुप श्रोत्रिय ब्राह्मण को दोगे तो उससे दाता (देने वाले) और लेने वाले दोनों को नरककूप में गिरना पड़ेगा। धर्मबुद्धि से दान देने वाला अनजान दाता कदाचित् उस पाप से लिप्स न हो, लेकिन दोष जानने पर | भी लेने वाला मांसलोलुप तो उस पाप से लिप्त होता ही है।' अपात्र जीव को मारकर जो पात्र का पोषण करता है, वह
अनेक मेंढकों को मारकर सर्प को खुश करने के समान है। जिनेश्वरों का कथन है कि त्यागी पुरुषों को स्वर्णादि का दान नहीं देना चाहिए। इसलिए सुज्ञ एवं बुद्धिमान मनुष्य को सुपात्र को कल्पनीय आहारादि ही दान के रूप में देना चाहिए।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी रत्नत्रय से युक्त, पांच समितियों और तीन गुप्सियों के पालक, महाव्रत के भार को उठाने में समर्थ परिषहों एवं उपसर्गों की शत्रुसेना पर विजय पाने वाले महासुभट साधु-साध्वियों को जब अपने शरीर पर भी ममता नहीं होती, तब अन्य वस्तुओं पर तो ममता होगी ही कैसे? धर्मोपकरणों के सिवाय सर्वपरिग्रहत्यागी, ४२ दोषों से रहित निर्दोष भिक्षा-जीवी, शरीर को केवल धर्मयात्रा में लगाने के लिए ही आहारादि लेने वाले, ब्रह्मचर्य की नौ 1. ददद्धर्मधिया दाता न तथाऽधेन लिप्यते | जानन्नपि यथा दोषं गृहीता मांसलोलुपः ।।२१।। योगशास्त्र पेज नं. २६३
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