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साधुसाध्वी को आहार की तरह वसपात्र-आवासादि देने एवं उनके द्वारा लेने का महत्त्व योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८७ माधारस्तंभ. शरीर के उपकारक वस्त्र आदि साध को देने चाहिए। घास ग्रहण करने (भरने) के लिए, अग्निसेवन के निवारणार्थ (आग तापने की ऐवज में), धर्मध्यानशुक्लध्यान की साधना के लिए, ग्लान साधु की पीडा-निवारणार्थ, मृत साधु को परिठाने के लिए; इत्यादि संयमपालन में वस्त्र सहायक-उपकारक है। यही बात अन्यत्र भी कही है। वाचकवर्य श्री उमास्वाति ने भी कहा है-'वस्त्र के बिना ठंड, हवा, धूप, डांस, मच्छर आदि से व्याकुल साधक के सम्यक्त्व आदि में व सम्यग् ध्यान करने में विक्षेप होता है।' ये और ऐसे ही कारणों से वस्त्र की तरह पात्र को भी उपयोगी भी बताया है। भिक्षा के रूप में आहार लाने में, अशुद्ध आहार आदि भिक्षा में आ जाय तो उसमें से निकालकर परिठाने में जीवों से युक्त आहार से होती जीवविराधना रोकने कि लिए, असावधानीवश कदाचित् भिक्षा में कोई सड़े गले चावलों आदि का ओसामण या पानी आ गया हो तो उन्हें सुखपूर्वक (आसानी से) यतना से पात्र में लेकर परठने हेतु पात्र का रखना लाभदायक है। कहा भी है-जिनेश्वर भगवान ने षट्काय के जीवों की रक्षा के लिए पात्र रखने की आज्ञा दी और आहार-पानी आदि नीचे गिरने और जीव विराधना होने से बचाने के लाभ की दृष्टि से उन्हें पात्र ग्रहण करना चाहिए। रोगी. बालक. वद्ध. नवीन साध. पाहने साध. गरुमहाराज. असहिष्ण साधवर्ग. एक ही रहने वाले लब्धि रहित साधुवर्ग इत्यादि की आहार-पानी आदि से सेवा पात्र रखने पर ही हो सकती है। (ओ. नि. ६९१-९२) क्योंकि पात्र में आहारादि वस्तुएँ ग्रहण करके लाने में किसी प्रकार का असंयम नहीं होता।
• यहां प्रश्न होता है कि तीर्थकरों ने वस्त्र-पात्र का परिभोग किया हो, ऐसा सुनने में नहीं आता इसलिए उनके अनुगामी शिष्यों को उनके चरित्र का अनुसरण करना उचित है! कहा भी है-जारिसं गुरुलिंग सिस्सेण वि तारिसेण होयव्वं यानी जैसा गुरु का लिङ्ग-आचरण हो, वैसा ही आचरण उसके शिष्य का होना चाहिए? इसके उत्तर में कहते हैं-श्रीतीर्थकर परमात्मा का हाथ छिद्र रहित होता है, उसमें से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरती। अपितु उसकी शिखा सूर्य चंद्र तक ऊंची बढ़ती जाती है। वे अपने चार या पांच ज्ञान के बल से जीव संसक्त या जीव रहित आहार तथा त्रसजीव रहित या त्रसजीव सहित पानी को भलीभांति जानकर जो निर्दोष हो, उसे ही ग्रहण करते हैं। इस कारण उनके लिए पात्र आदि का ग्रहण करना (रखना) लाभदायक नहीं है। वस्त्र तो सभी तीर्थंकरों के दीक्षाकाल में ग्रहण करने का कहा है। चौबीसों तीर्थकर एक देवदूष्य सहित दीक्षा लेते हैं, इससे वे अन्यलिंग में, गृहस्थ लिंग में या कुलिंग में परिगणित नहीं होते। (आ. नि. २१७) परममहर्षियों ने यह कहा है कि भूतकाल में जो तीर्थकर हो चुके हैं, भविष्यकाल में जो होने वाले हैं और वर्तमानकाल में जो विचरण कर रहे हैं, वे सभी वस्त्र-पात्र युक्त धर्म का उपदेश देने वाले होने से एक देवदृष्यवस्त्र धारण करके दीक्षा ग्रहण करते हैं, दीक्षा ग्रहण करेंगे और दीक्षा ग्रहण की थी, उन सबकी मैं पर्युपासना करता हूं। दीक्षा लेने के बाद समस्त परिषहों और उपसर्गो की पीड़ा को वे सहन करते हैं, इसलिए फिर उन्हें वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती। किसी प्रकार से वह वस्त्र चला जाता है तो फिर वे उसको ग्रहण नहीं करते। शिष्य को गुरु के आचरण का अनुसरण करना चाहिए, ऐसा जो कहा गया है, वह इसी दृष्टि से कहा गया समझना चाहिए। यह तो वैसा ही है जैसे कोई सामान्य हाथी ऐरावत हाथी का अनुकरण करे। तीर्थंकर का अनुकरण करने का इच्छुक साधक मठ, वसति या उपाश्रय में निवास करना, कारणवश आधाकर्मी आहार का सेवन करना, बीमारी में तेल की मालिश करना, घास की चटाई या घास रखना, कमंडल रखना, बहुत-से साधुओं के साथ रहना, छद्मस्थ होते हुए भी उपदेश देना, साधु-साध्वी को दीक्षा देना (शिष्य-शिष्या बनाना) आदि सभी कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि तीर्थकर तो इन सभी से दूर रहते हैं। परंतु तीर्थंकर का अनुकरण करने वाले वे तथाकथित साधु तो इन सबका आचरण करते ही है।
वर्षाकाल में साधु स्थंडिलभूमि या अन्यत्र कहीं बाहर गया हो, उस समय वर्षा आ जाय तो जल-कायिक जीवों की रक्षा के लिए कंबली आवश्यक होती है। बाल, वृद्ध या रुग्ण साधु के लिए वर्षा के समय भिक्षार्थ जाना पड़े तो शरीर पर कंबली ओढ़ लेने से जलकायिक जीवों की विराधना नहीं होती। लघुशंका या बड़ी शंका के लिए बरसात के समय बाहर जाना पड़े तो कंबली ओढ़ लेने से जल-जीवों की विराधना रुक जाती है। यहां प्रश्न होता है कि कंबली न ओढ़कर यदि वर्षा के समय छाता लगा ले और छाते से शरीर को ढककर चले तो कौन-सा दोष लगता है? इसका समाधान करते हैं-'छत्तस्स धारणट्ठाए' (दश. ३/४) इस प्रकार के आगमवचन के अनुसार छत्र धारण करना अनाचीर्ण
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