________________
साधुसाध्वी को आहार की तरह वस्त्रपात्र-आवासादि देने एवं उनके द्वारा लेने का महत्त्व योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८७ पश्चात्कर्म आदि दोष रहित, भाग–अर्थात् देय वस्तु में से अमुक अंश देना। इस प्रकार समग्र अतिथिसंविभागवत पद का तात्पर्य यह हुआ कि अपने आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि देय पदार्थों में से यथोचित अंश साधुसाध्वियों को निर्दोष भिक्षा के रूप में देने का व्रत-नियम अतिथि-संविभागवत है, बशर्ते कि वह आहारपानी आदि देय वस्तु न्यायोपार्जित हो, अचित्त या प्रासुक हो, दोषरहित हो, साधु के लिए कल्पनीय हो; तथा देश, काल, श्रद्धा और सत्कारपूर्वक, स्वपरआत्मा के उपकार की बुद्धि से साधु को दी जाय! कहा भी है-न्याय से कमाया हुआ और साधु के लिए कल्पनीय आहार-पानी आदि पदार्थ देश, काल, श्रद्धा और सत्कारपूर्वक उत्तम भक्तिभावों (शुभ परिणामों) से युक्त होकर स्वपरकल्याण की बुद्धि से संयमी को दान करना अतिथिसंविभागवत है। दान (संविभाग) में विधि, द्रव्य, दाता और पात्र चार बातें देखनी चाहिए।
पात्र-साधुवर्ग रूप उत्कृष्ट पात्र हो, भिक्षाजीवी हो, संयमी हो वह उत्कृष्ट सुपात्र है।
दाता-देय भिक्षा के ४२ दोषों में से १६ उत्पादन के दोष दाता से ही लगते हैं। दाता वही शुद्ध के निमित्त से भावुकतावश, कोई चीज आरंभ-समारंभ पूर्वक तैयार न करता हो, न करवाता हो, न पकाता हो, न खरीदकर लाता हो। साधु को भिक्षा देने के पीछे उसकी कोई लौकिक या भौतिक कामना, नामना या स्वार्थलिप्सा न हो; वह किसी के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना से न देता हो। शर्माशी, देखादेखी या अरुचि से नहीं, बल्कि उत्कट श्रद्धाभक्ति पूर्वक दान देता हो।
द्रव्य-देय द्रव्य-पदार्थ वही शुद्ध कहलाता है, जो प्रासुक, अचित, साधु के लिए कल्पनीय एवं एषणीय हो; साधुवर्ग के लिए जो धर्मोपकरण के रूप में शास्त्र में विहित है या जो खाद्यपदार्थ साधु के लिए ग्राह्य है। .
विधि-भिक्षा देने की विधि भी निर्दोष होनी चाहिए, साधुवर्ग की अपनी आचारमर्यादा के अनुरूप उन्हें आहारादि के ४२ दोषों से रहित भिक्षा दी जाये, तभी संयमपोषक और सर्वसंपत्कारी भिक्षा हो सकती है। अन्यथा गलत विधि से दी गयी या ली गयी भिक्षा तो भिक्षु की तेजस्विता को ही समाप्त कर देती है।
वही भाग्यशाली धन्य है जो साधुवर्ग का सम्मान करता है, अशन, पान, खादिम-स्वादिम रूप समग्र आहारसामग्री; उनके संयम के लिए हितकर वस्त्र, पात्र, कंबल, आसन, निवास के लिए स्थान, पट्टे, चौकी आदि संयमवृद्धि के साधन अत्यंत प्रीतिपूर्वक साधुसाध्वियों को देता है। जिनेन्द्र भगवान् के आज्ञापालक सुश्रावकों को चाहिए कि वे साधुसाध्वियों को उनके लिए कल्पनीय, एषणीय, निर्दोष वस्तु अपनी शक्ति के अनुसार अल्प मात्रा में भी दे।
और उन्हें न दी हुई वस्तु कदापि अपने कार्य में इस्तमाल न करे। अपने रहने के लिए स्थान, आसन, शय्या, आहारपानी, औषध, वस्त्र; पात्र आदि उपकरण स्वयं अधिक संपत्तिवान् न हो, तो उनमें से स्वल्पमात्रा में ही सही, साधुसाध्वियों को देने चाहिए। वाचकमुख्य श्री उमास्वातिजी महाराज प्रशमरति-प्रकरण गाथा १४५-१४६ में कहते हैं'निर्दोष, शुद्ध एवं कल्पनीय आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र और औषध आदि कोई भी वस्तु कारणवश अकल्पनीय भी हो जाती है और जो अकल्पनीय है, वह कारणवश कल्पनीय भी हो जाती है। देश, काल, पुरुष, परिस्थिति, उपधाता (उपभोक्ता) और शुद्धपरिणाम को लेकर कोई वस्तु कल्पनीय हो जाती है और कोई अकल्पनीय हो जाती है। एकांत रूप से कोई भी वस्तु कल्प्य या अकल्प्य नहीं होती।
यहां शंका होती है कि शास्त्र में आहार-दाता का नाम तो प्रसिद्ध है, सुना भी जाता है परंतु वस्त्रादि-दाता का नाम न प्रसिद्ध है, न सुना ही जाता है, तो वस्त्रादि देना कैसे उचित है? इसका समाधान करते हुए कहते हैं-यह कहना यथार्थ नहीं है। श्री भगवतीसूत्र आदि में वस्त्रादि का दान देना स्पष्टतः बताया गया है। वह पाठ इस प्रकार है-समणे णिग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं, वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पीढफलग-सेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ। अर्थात्-श्रमणोपासक गृहस्थ श्रमणनिग्रंथों को अचित्त (प्रासुक), एषणीय (निर्दोष) अशन, पान, खाद्य और स्वाध रूप चार प्रकार का आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, पट्टा, चौकी, शय्या, संस्तारक (बिछौना) आदि दान देकर लाभ लेता हुआ जीवन यापन करता है। इसलिए आहार-पानी की तरह संयम के
216