________________
अतिथिसंविभागव्रत का स्वरूप और विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८७ तेरे तीनों पुत्रों को मैंने तेरे देखते ही देखते मौत के मुंह में झोंक दिये। इतने पर भी तूं अपना हठ नहीं छोड़ेगा तो तेरे | कुल की आधारभूत देवगुरुसमान तेरी जननी को मारकर उसका मांस भुनकर और पकाकर चटकर जाऊंगा। यह मेरी | अंतिम चेतावनी है।' परंतु इतने पर भी चुलनीपिता को भयविह्वल न देखकर देवता ने भद्रा को उसकी चोटी पकड़कर घसीटा और जैसे कत्लखाने में कसाई को छुरा हाथ में लिये सामने देखकर बकरा कंपित होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगता है, वैसे ही ऐसा दृश्य दिखाया कि माता भद्रा के सामने तलवार लेकर मारने को उद्यत हो रहा है, और माता | भद्रा हृदयविदारक करुण रुदन एवं चित्कारकर रही है। इस दयनीय दृश्य के साथ ही देव ने फिर चुलनीपिता से कहाओ स्वार्थी पेटू ! अपनी माता की हालत तो देख! जिसने तुझे जन्म दिया है, अपने उदर में रखकर तेरा भार सहा है। वह मां, आज मारी जा रही है और तूं स्वार्थी बनकर बैठा है! इस पर चुलनीपिता ने मन ही मन सोचा - यह | परमाधार्मिक असुर के समान कोई दुरात्मा है, जो मेरे तीन पुत्रों को तो मारकर चटकर गया है और अब मेरी माता को | भी कसाई के समान मारने पर तुला है। अतः अच्छा तो यह है कि इसके मारने से पहले ही मैं अपनी मां को बचा लूं। इस विचार से पौषध से चलित होकर चुलनीपिता देव को पकड़ने के लिए उठा और जोर से गर्जना की। यह देखते | ही देव महाशब्द करता हुआ अदृश्य होकर आकाश में उड़ गया। उस देवता के जाते ही वहां सन्नाटा था। परंतु उस कोलाहल को सुनकर भद्रा माता तुरंत दौड़ी हुई वहां आयी और पूछने लगी- बेटा ! क्या बात थी ? इस प्रकार जोर| जोर से क्यों चिल्ला रहे थे? चुलनीपिता ने सारी घटना कह सुनायी । सुनकर भद्रमाता ने कहा- पुत्र ! यह तो देवमाया | थी! कोई मिथ्यादृष्टिदेव झूठमूठ भय दिखाकर तेरे पौषधव्रत को भंग करने आया था। वह अपने काम में सफल हो । गया । अतः तूं पौषधव्रतभंग होने की आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जा । व्रतभंग होने की आलोचना नहीं की जाती तो अतिचार से व्रत मलिन हो जाता है। तब निर्मलमति अनाग्रही चुलनीपिता ने माता के वचन शिरोधार्य किये और व्रतभंग के दोष की आलोचना करके शुद्धि की। फिर स्वर्ग के महल के सोपान पर चढ़ने की तरह क्रमशः ग्यारह श्रावकप्रतिमाएँ स्वीकार की। और भगवान् के वचनानुसार अखंड तीक्ष्णधारा के समान दीर्घकाल तक कठोर रूप से उन ११ प्रतिमाओं की आराधना की। तत्पश्चात् बुद्धिशाली श्रावक ने संलेखनापूर्वक आजीवन अनशन कर लिया, जिसका | उसने आराधना विधि पूर्वक पालन किया और समाधिमरण सहित अपना शरीर छोड़ा। वहां से मरकर चुलनीपिता प्रथम | देवलोक में अरुणप्रभ नामक देव बना। जिस प्रकार चुलनीपिता ने दुराराध्य पौषधव्रत की आराधना की थी, उसी प्रकार और भी जो कोई आराधना-साधना करेगा, वह दृढव्रती श्रावक अवश्य ही मुक्ति पाने का अधिकारी बनेगा। यह है, | चुलनीपिता की व्रतदृढ़ता का नमूना ! ।। ८६ ।।
अब अतिथिसंविभाग नामक चौथे शिक्षाव्रत के संबंध में कहते हैं
। २५८ । दानं चतुर्विधाऽऽहारपात्राऽच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥८७॥
अर्थ :- चार प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि कल्पनीय वस्तुएँ साधु-साध्वियों को दान देना, अतिथिसंविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है ||८७||
व्याख्या :- अतिथि का अर्थ है—जिसके आगमन की कोई नियत तिथि न हो, जिसके कोई पर्व या उत्सव आदि नियत न हों, ऐसे उत्कृष्ट अतिथि साधुसाध्वी है। उनके लिए संविभाग करना, यानी जब वे भिक्षा के लिए भोजनकाल में पधारें तो उन्हें अपने लिये बनाये हुए अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप चार प्रकार के आहार में से दान देना, तूम्बे या लकड़ी आदि के पात्र, ओढने के लिए वस्त्र या कंबल और रहने के लिए मकान और उपलक्षण से पट्टा, बाजौर, चौकी, पटड़ा, शय्या आदि का दान देना, अतिथिसंविभागव्रत है। इससे स्वर्ण आदि के दान का निषेध किया गया है, क्योंकि साधु को उसे रखने का विधान नहीं है। वास्तव में ऐसे उत्कृष्ट सुपात्र को उनकी आवश्यकतानुसार दान | देने को अतिथिसंविभागव्रत कहते हैं। अतिथिसंविभागव्रत की व्युत्पत्ति के अनुसार इस प्रकार अर्थ होता है- अतिथि| यानी जिसके कोई तिथि, वार, दिन, उत्सव या पर्व नहीं है ऐसे महाभाग्यशाली दानपात्र को अतिथि- साधुसाध्वी कहते हैं। संविभाग में सम् का अर्थ है - सम्यक् प्रकार = आधाकर्म आदि ४२ दोषों से रहित, वि-अर्थात् विशिष्ट प्रकार से
215