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सामायिक में समाधिस्थ चंद्रावतंसक का उदाहरण, देशावगासिक व्रत
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८३ से ८५ अतः अत्यंत विनीतभाव से यथाभद्रक होकर राजा भी चला आये तो पहले से उसके बैठने के लिए आसन तैयार करना और वही सत्कार - पूजा करना है। अन्य कुछ भी नहीं करना है। आचार्य महाराज तो पहले से ही उठकर वही घूमने | लगे; ताकि राजा के आने पर खड़े नहीं होना पड़े। क्योंकि उस संबंध में उठने, न उठने से कोई दोष नहीं लगता। यह केवल एक व्यवहार है। राजा या ऋद्धिमान श्रावक को इस विधि से आदरपूर्वक सामायिक करनी चाहिए। सामायिक में रहने से महानिर्जरा होती है ।। ८२ ।।
इसे ही दृष्टांत द्वारा समझाते हैं
। २५४। सामायिकव्रतस्थस्य, गृहिणोऽपि स्थिरात्मनः । चन्द्रावतंसकस्येव, क्षीयते कर्म सञ्चितम् ||८३ || अर्थ :- गृहस्थ होने पर भी सामायिक- व्रत में स्थित आत्मा के चंद्रावतंसक राजा की तरह पूर्वसंचित कृत कर्म क्षीण हो जाते हैं ||८३ ।।
यह उदाहरण गुरुपरंपरा से गम्य है। वह इस प्रकार है
सामायिक में समाधिस्थ चंद्रावतंसक नृप :
लक्ष्मी के संकेतगृह के समान उज्ज्वल, इंद्रपुरी की शोभा को मात करने वाला संकेतपुर नगर था। वहां पृथ्वी के | मुकुटसम दूसरे चंद्रमा के समान जननयन आल्हादक 'चंद्रावतंसक' राजा राज्य करता था । बुद्धिशाली राजा अपने देश | की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करता था, इसी प्रकार आत्मगुणों की रक्षा के लिए चार प्रखर एवं कठोर शिक्षाव्रत भी धारण | किये हुए था । माघ महीने में एक बार रात को अपने निवासस्थान पर उसने सामायिक अंगीकार की और ऐसा संकल्प करके कायोत्सर्ग में खड़ा हो गया कि 'जब तक यह दीपक जलता रहेगा, तब तक में सामायिक में रहूंगा।' दीपक में | तेल जब कम होने लगा तो उनकी शय्यापालिका दासी ने रात के पहले प्रहर में ही दीपक में यह सोचकर और तेल | उड़ेल दिया कि 'स्वामी को कहीं अंधेरा न हो ।' स्वाभीभक्तिवश वह दूसरे प्रहर तक जागती रही और फिर उसने जाकर | दीपक में पुनः तेल डाल दिया। दीपक लगातार जलता रहा। अतः राजा ने तीसरे प्रहर तक अपने संकल्प (अभिग्रह) | के अनुसार कायोत्सर्ग चालू रखा। शय्यापालिका को राजा के संकल्प का पता नहीं था, अतः उसने फिर दीपक में तेल | उड़ेल दिया। रात्रि पूर्ण हुई। प्रातःकाल हो गया, पर राजा संकल्पानुसार कायोत्सर्ग में खड़ा रहा। रातभर की थकान से शरीर चूर-चूर होकर अधिक व्यथा न सह सकने के कारण धड़ाम से गिर पड़ा। राजा का शरीर छूट गया। परंतु अंतिम | समय तक समाधिभाव में रहने के कारण अशुभ कर्मों का क्षय एवं शुभ कर्म का बंध हो जाने से राजा आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में गया ||८३॥
इसी प्रकार अन्य गृहस्थ भी सामायिकव्रत अंगीकार करके समाधिभाव में स्थिर रहे तो वह अवश्य ही अशुभकर्मों | का क्षय करके तत्काल सद्गति प्राप्त कर लेता है। यह चंद्रावतंसकनृप की कथा का हार्द !
अब देशावकाशिक नामक द्वितीय शिक्षाव्रत के संबंध में कहते हैं
।२५५। दिग्व्रते परिमाणं यत्, तस्य सङ्क्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च दिशावकाशिकव्रतमुच्यते ॥८४॥ अर्थ :- दिव्रत में गमन की जो मर्यादा की हो, उसमें से भी एक अहोरात्र के लिए संक्षेप करना देशावकाशिकव्रत कहलाता है ||८४ । ।
व्याख्या : - दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत में दशों दिशाओं में गमन की जो सीमा (मर्यादा) निश्चित की हो, उसमें
से भी पूरे दिन रातभर के लिए, उपलक्षण से पहर आदि के लिए विशेष रूप से संक्षेप करना देशावकाशिक व्रत | कहलाता है। यहां दिग्व्रत में प्रथमव्रत के संक्षेप करने के साथ-साथ उपलक्षण से दूसरे अणुव्रत आदि का भी संक्षेप | समझ लेना चाहिए। प्रत्येक व्रत के संक्षेप करने के लिए उसका प्रत्येक का एक-एक व्रत रखा जाता, तो व्रतों की संख्या बढ़ जाती और व्रतों की शास्त्रोक्त १२ संख्या के साथ विरोध पैदा हो जाता ।। ८४ ।।
अब तीसरे शिक्षाव्रत पौषधव्रत के विषय में कहते हैं
।२५६। चतुष्पर्व्यां चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्यक्रियास्नानादित्यागः पौषधव्रतम् ॥८५॥
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