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सामायिक सूत्र का अर्थ एवं विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८२ __सामायिक सूत्र-करेमि भंते; सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं, मणेण वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गिरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। ____ यहां सामायिक-सूत्र का अर्थ बताते हैं- 'करेमि' अर्थात् मैं स्वीकार करता हूं 'भंते-यह गुरुमहाराज को आमंत्रण है, 'हे भदंत! भदंत का अर्थ सुख वाले और कल्याण वाले होता है।' भदुधातु सुख और कल्याण के अर्थ में है, इसके अंत में 'औ दिक्' सूत्र से 'अंत प्रत्यय लगने से भदंत-रूप बना है। इस संबोधन से प्रत्यक्ष-गुरु का आमंत्रण होता है। जैनागमों में बताया गया है कि प्रत्यक्षगुरु के अभाव में परोक्ष-गुरु के लिए भी अपनी बुद्धि से अपने सामने प्रत्यक्षवत् कल्पना की जा सकती है। जिनेश्वरदेव के अभाव में जिन-प्रतिमा में जिनत्व का आरोपकर जैसे स्तुति, पूजा, संबोधन आदि होते हैं, वैसे ही साक्षात्-गुरु के अभाव में मन में उनकी कल्पना करके अपने सामने मानो प्रत्यक्ष विराजमान हों, इस तरह की स्थापना करके साधक सभी धर्मक्रियाएँ आदर-पूर्वक कर सकता है। अतः इसे बताने के लिए ही भंते शब्द का आमंत्रण अर्थ में प्रयोग किया गया है। अतः कहा है कि 'जो गुरुकुलवास में रहता है, वह ज्ञानवान होता है। वह दर्शन तथा चारित्र में अत्यंत स्थिर हो जाता है। इसलिए भाग्यशाली उत्तम आत्मा जीवनभर गुरुकुलवास (गुरु का आश्रय-गुरु-निश्राय) नहीं छोड़ते। (वि. भा. ३४/५९) अथवा 'भंते' पद पूर्वमहर्षियों द्वारा उक्त होने से प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार आर्षम् सूत्र के आधार पर 'भवांत' पद के बीच के वर्ण का लोप होकर 'अत एत्सो पुंसि मागध्याम्-८/४/२८७' इस सूत्र से अर्धमागधी के नियमानुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकार का एकार हो जाता है। इस तरह भवांतशब्द का भी प्राकृत में 'भंते' रूप हो सकता है। इस दृष्टि से इसका दूसरा अर्थ हुआ 'भंते' यानी 'भवांत' अर्थात् संसार से पार उतरने और उतारने वाले। 'सामाइयं का अर्थ पहले कहा जा चुका है। अर्थात् साधक संकल्प करता है कि मैं आत्मा को समभाव में स्थिर करता हूं।' आत्मा समभाव में स्थिर कैसे होगा? इसके लिए आगे का संकल्प है- 'सावजं जोगं पच्चक्खामि'-सावध अर्थात् पापयुक्त जो योग, मन, वचन और काया का पापप्रवृत्ति रूप व्यापार, उसका पच्चक्खामि अर्थात् त्याग करता हूं। साधक यहां सावध प्रवृत्ति के विरुद्ध निर्णय करता है अथवा उसे नहीं करने का आदरपूर्वक निर्णय करता है। वह कब तक? उसका नियम आगे कहते हैं- 'जाव साहू पज्जुवासामि' अर्थात् जब तक साधु की पर्युपासना करता हूँ, तब तक सामायिक करूंगा।
यहां जो 'यावत्' शब्द है, उसके तीन अर्थ होते हैं-१. परिमाण, २. मर्यादा और ३. अवधारणा-निश्चय। परिमाण का अर्थ है-जहां तक साधु की पर्युपासना (सेवा) करे, उतने समय तक पापमय व्यापार का त्याग करना। मर्यादा का अर्थ है-साधु की पर्युपासना (सेवा) प्रारंभ करने से पहले अथवा सामायिक लेने से पहले से पाप-व्यवहार का त्याग करना और अवधारणा का अर्थ है-साधु की पर्युपासना करे, वहां तक के लिए ही पापव्यापार को छोड़ना; उसके बाद नहीं। इस तरह 'जाव' शब्द के तीन अर्थ समझना। परंतु आजकल 'जावनियम' बोला जाता है। इससे सामायिक का परिमाण वर्तमानकाल में कम से कम एक मुहूर्त (दो घड़ी ४८ मिनट) का माना जाता है। अतः फलितार्थ यह हुआ कि सामायिक के प्रारंभ से लेकर पूर्ण होने तक की सावध (सदोष) व्यापार (प्रवृत्ति) का त्याग करना, उसके बाद नहीं। साधक उस पापव्यापार का किस रूप में त्याग करता है? इसके लिए आगे का पाठ बताते हैं-'दुविहं तिविहेणं'। इसका अर्थ है-साधक को सामायिक में दो प्रकार से और तीन प्रकार से होने वाले पापव्यापार का त्याग करना है। जहां पापव्यापार का द्विविध त्याग किया जाता है, वहां दो करण से समझना चाहिए। जैसे-'न करेमि, न कारवेमि।' अर्थात् मैं स्वयं पापव्यापार नहीं करूंगा और न दूसरे से कराऊंगा। इस तरह सामायिक में इन दोनों प्रकारों से हो सकने वाले पाप-व्यापार का गृहस्थ साधक त्याग करता है।' अनुमोदन रूपी पाप-व्यापार का निषेध नहीं है; क्योंकि वैसा करना गृहस्थ के लिए अशक्य है। पुत्र, नौकर आदि द्वारा किये गये कार्य में स्वयं नहीं करने पर भी अनुमोदन का दोष लगता है। अब तिविहेणं-'तीन प्रकार से अर्थ समझीए। यहां करण में तृतीया विभक्ति है। यानी सावधप्रवृत्ति के लिए तीन साधन है-मन, वचन और काया। इन्हें जैनागमों में तीन योग कहा है। इसलिए कहा है-'मणेणं, वायाए, कारणं' अर्थात् मन, वचन और काया से इन तीनों योगों से सावध-व्यापार का त्याग करता है। न करेमि, न कारवेमि इस सूत्र से मन, वचन, काया से नहीं करूंगा और नहीं कराऊंगा इन दोनों प्रकारों का विवरण है। फिर कारण को अर्थात् उद्देश्य |
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