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सामायिकसूत्र के पाठ का व्याख्यासहित अर्थ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८२ | मोदक, खीर, सूरण आदि कंद और मालपूएँ आदि अशन हैं। इसे ही कहते हैं-चावल, सत्तू, मूंग, ज्वार, पकाया हुआ भोजन, खीर, सूरण और पूएँ ये सभी अशन रूप आहार हैं। सौवीर, कांजी, जौ आदि धान्य की मदिरा, शर्बत आदि
और सभी प्रकार के पेयपदार्थ तथा फलों का रस पान रूप आहार कहलाता है। भुना हुआ, सेका हुआ धान्य, गुड़पापड़ी या तिलपट्टी, खजूर, नारियल, किशमिश, ककड़ी, आम, अंगूर, अनार, मौसंबी, संतरा आदि अनेक प्रकार के फल खाद्य रूप आहार के अंतर्गत समझना; दंतौन या दांतमंजन, पान (तांबूल) तुलसिका, मुलहठी, अजवाइन, सौंफ, पीपरामल. सोंठ, कालीमिर्च, जीरा, हल्दी, बहेड़ा, आंवला आदि स्वाद्य रूप आहार है। (पंचाशक ५/२७. प्रकार तीन गुणव्रत पूर्ण हुए ।।८१।।
अब चार शिक्षाव्रतों का वर्णन करते हैं। उसके ४ प्रकार हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग। उसमें प्रथम सामायिक नामक शिक्षाव्रत में सामायिक के स्वरूप का वर्णन करते हैं।२५३। त्यक्तातरौद्रध्यानस्यत्यक्त-सावद्यकर्मणः । मुहूत्र्तं समता या तां, विदुः सामायिकव्रतम् ॥८२।। अर्थ :- आर्त और रौद्रध्यान का त्याग करके सर्व प्रकार के पाप-व्यापारों का त्यागकर एक महर्त तक समत
धारण करने को महापुरुषों ने सामायिकव्रत कहा है ।।८।। व्याख्या :- एक मुहूर्त यानी दो घड़ी समय तक, समता अर्थात् राग-द्वेष पैदा होने के कारणों में मध्यस्थ रहना, सामायिकव्रत है। सामायिक शब्द की व्युत्पति करके उसका अर्थ करते हैं। 'सम' अर्थात् रागद्वेष से रहित होना और आय अर्थात् ज्ञानादि का लाभ। यानी प्रशमसुख रूप अनुभव। वही सम+आय=समाय ही सामायिक है। व्याकरण के नियम से यहां इकण् प्रत्यय लगा है। अतः समाय+इकण् प्रत्यय लगकर सामायिक रूप बना है। वह सामायिक मन, वचन और काया की सदोष चेष्टा (व्यापार) का त्याग किये बिना नहीं हो सकती, इसलिए श्लोक में आर्तरौद्रध्यान के त्याग को सामायिक कहा है। पापकारी व्यापार का त्याग भी सामायिक है और सावध वाचिक और कायिक कार्यों का त्याग करने वाले की समता को भी सामायिक कहते हैं। सामायिक में रहा हुआ गृहस्थ श्रावक भी साधु के समान होता है। कहा है-'सामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ' अर्थात् सामायिक करते समय श्रावक साधु जैसा बन जाता है। इस कारण श्रावक को अनेक बार सामायिक करना चाहिए। (आव. नि. ८०१) और इसी कारण सामायिक में देवस्नात्रपूजा आदि का विधान नहीं है।
यहां शंका होती है कि देवपूजा, स्नात्र आदि तो धर्मकार्य हैं। इन्हें सामायिक में करने से क्या दोष लगता है? सामायिक में तो सावधव्यापार का त्याग किया जाता है और निरवद्य व्यापार का स्वीकार किया जाता है। इस दृष्टि से सामायिक में स्वाध्याय करना. पाठ का दोहराना इत्यादि के समान देव-पूजा आदि करने में कौन-सा दोष है? इसक समाधान करते हए कहते हैं- 'ऐसा कहना ठीक नहीं है। साध के समान सामायिक में रहे हए श्रावक को देव
का अधिकार नहीं है। द्रव्यपजा के लिए भावपजा कारण रूप है. इसलिए श्रावक सामायिक में हो तब, भावस्तव से प्राप्त हो जाने वाली वस्तु के लिए द्रव्यस्तव का प्रयोजन नहीं रहता। कहा है कि 'द्रव्य पूजा और भावपूजा इन दोनों में द्रव्य पूजा बहुत गुणों वाली है; यह अज्ञानी मनुष्य के वचन है; ऐसा षड्जीवनिकार्यों के हितैषी श्रीजिनेश्वरभगवान् ने कहा है। सामायिक करने वाले श्रावक दो प्रकार के होते हैं-ऋद्धि वाले और ऋद्धि रहित। चार जगहों पर सामायिक की जाती है-जिनमंदिर में, साधु के पास, पौषधशाला में और अपने घर में शांत, एकांत स्थान या व्यापार-रहित स्थान में। उसकी विधि यह है-अगर किसी से भय न हो, किसी के साथ विवाद या कलह न हो या किसी का कर्जदार न हो, किसी निमित्त पर बोलाचाली, खींचातानी या चित्त में संक्लेश न हो; ऐसी दशा में अपने घर पर भी सामायिक करके ईर्यासमिति का शोधन करता हुआ, सावद्य-भाषा का त्याग करता हुआ, लकड़ी, ढेला आदि किसी वस्तु की जरूरत हो तो उसके मालिक की आज्ञा लेता है। आंख से भलीभांति देखकर प्रतिलेखना करके और प्रमार्जनिका से प्रमार्जन करके ग्रहण करता है। थूक, कफ, नाक का मैल व लघुनीति आदि का वह यतनापूर्वक त्याग करता है। स्थान अच्छी तरह देखकर, जमीन का प्रमार्जन करता है। इस तरह यतनापूर्वक, पांच समिति तीन गुप्ति का पालन करता है। यदि साधु हो तो, उपाश्रय में जाकर वह उन्हें वंदना करके निम्नलिखित पाठ से सामायिक स्वीकार करता है
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