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पौषधव्रत परिपालन की विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८५ से ८६ अर्थ :- चार पर्व-दिनों में चतुर्थभक्त - प्रत्याख्यान आदि उपवास-तप, कुप्रवृत्ति का त्याग, ब्रह्मचर्य - पालन एवं स्नानश्रृंगारादि का त्याग किया जाय, उसे पौषधव्रत कहते हैं ॥ ८५॥
व्याख्या :- अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या ये चार पर्वतिथियां कहलाती है। इन पर्वतिथियों में | पौषधव्रत अंगीकार करना श्रावक के लिए विहित है। इस व्रत में उपवास आदि तप के साथ सावद्य (पापमय) प्रवृत्ति | को बंद करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, स्नानादि शरीर-संस्कार का त्याग; आदि शब्द से तेलमालिश, महेंदी लगाना, चंदनादि लेप करना, इत्रफूलेल आदि लगाना, सुगंधित फूलों की माला अथवा मस्तक पर पुष्पहार धारण करना, बहुमूल्य रंगबिरंगे, भड़कीले वस्त्र एवं अलंकार पहनना, शरीर को शृंगार करके सुसज्जित करना, सुंदर बनाना आदि | बातों का त्याग भी समझ लेना चाहिए। इन निषिद्ध वस्तुओं का त्याग तथा ब्रह्मचर्य व तप का स्वीकार करके धर्म को पुष्ट करना, पौषधव्रत कहलाता है। वह पौषध दो प्रकार का होता है - देशपौषध और सर्वपौषध। आहार पूर्वक पौषध | देशपौषध होता है । किन्तु आहार सहित पौषध विविध विग्गई (विकृति जनक पदार्थ) के त्याग पूर्वक आयंबिल, एकासन | या बियासन से किया जाता है। पूरे दिन-रातभर का पौषध चारों ही प्रकार के आहार के सर्वथा त्याग पूर्वक उपवास | सहित होता है। इसमें दूसरे दिन सूर्योदय होने तक का प्रत्याख्यान होता है । देशतः (अंशतः) पाप-प्रवृत्तियों का त्याग | देशपौषध कहलाता है। इसमें किन्हीं एक या दो पाप - व्यापारों को छोड़ना होता है। एक अहोरात्र के लिए खेती, नोकरी, व्यापार-धंधा, पशुपालन एवं घर के आरंभ समारंभादि युक्त सभी कार्य - व्यापारों को छोड़ना सर्व - व्यापारपौषध कहलाता है। ब्रह्मचर्यपौषध भी देशतः और सर्वतः दोनों प्रकार से होता है। एक या दो बार से अधिक स्त्रीसेवन का त्याग | करना देशतः ब्रह्मचर्यपौषध और पूरे दिनरातभर के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वतः ब्रह्मचर्यपौषध है। इसी प्रकार स्नानादित्यागपौषध भी देशतः और सर्वतः दोनों प्रकार से होता है। एक या दो बार से अधिक स्नानादि | शरीरसंस्कार करने का त्याग देशतः स्नानादिपौषध और पूरे दिनरातभर स्नानादि का त्याग करना सर्वतः पौषध है।' यहां | देशतः कुव्यापार - ( सावद्यप्रवृत्ति) निषेध रूप पौषध जब करे, तब चाहे सामायिक न करे, परंतु सर्वपौषध करे तब तो अवश्य ही सामायिक करे। यदि ऐसा नहीं करेगा तो वह पौषध के फल से वंचित रहेगा। सर्वपौषध जब भी करे तब उपाश्रय, जिनमंदिर में या घर में एकांत स्थान में करे तथा उस समय पौषधव्रत के लेने से पहले ही स्वर्ण, स्वर्ण के आभूषण, पुष्पमाला, विलेपन, शस्त्र आदि का त्याग करके सामायिक व्रत का अंगीकार करे । पौषध में स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन, सत्साहित्यवांचन, धर्मध्यान व अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) पर चिंतन करे। साथ ही यह विचार भी करे कि 'अहो ! मैं कितना अभागा हूं कि अभी तक साधुत्व के गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं हो सका । '
यहां इतनी बात खासतौर से समझ लेनी चाहिए कि यदि पौषधव्रत भी आहारत्याग, शरीरसंस्कारत्याग और | ब्रह्मचर्यपालन की तरह कुव्यापारत्याग के रूप में अण्णत्थणाभोगेणं यानी आगारसहित स्वीकार किया हो (आगार रखा हो), तो उसका सामायिक करना सार्थक है, वरना नहीं है। क्योंकि पौषध के नियम आगारसहित स्थूल रूप हैं, जबकि | सामायिक के नियम सूक्ष्म रूप है। यद्यपि पौषध में सावद्यव्यापार ( प्रवृत्ति) का सर्वथा त्याग करना आवश्यक है, तथापि | सामायिक न करने से उसका लाभ नहीं मिलता। इसलिए पौषध के साथ सामायिक अवश्य करनी चाहिए। श्रावक| समाचारी की विशेषता से यदि पौषध भी सामायिक की तरह पूर्वोक्त दुविहं तिविहेणं (दो करण तीन योग से) स्वीकार किया गया है, तब तो सामायिक का कार्य पौषध से हो ही जाता है। अलग से सामायिकग्रहण विशेष फलदायी नहीं | होता । फिर भी यदि श्रावक मन में यह अभिप्राय रखता है कि मैंने पौषध और सामायिक दोनों व्रत स्वीकार किये हैं तो उसे पौषध और सामायिक दोनों का लाभ मिलता
।। ८५ ।।
अब पौषव्रत करने वाले की प्रशंसा करते हैं
| | २५७ ॥ गृहिणोऽपि हि धन्यास्ते, पुण्यं ये पौषधव्रतम् । दुष्पालं पालयन्त्येव, यथा स चुलनीपि ॥८६॥ गृहस्थ होते हुए भी वे धन्य हैं, जो चुलनीपिता के समान कठिनता से पाले जा सके, ऐसे पवित्र पौषधव्रत का पालन करते हैं ।। ८६ ।।
अर्थ :
1. वर्तमान में पौषध आहार पौषध देश एवं सर्व से होता है शेष सर्व पौषध सर्व से ही होते हैं। एवं कम से कम एकासणा किया जाता है।
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