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सामायिक सूत्र का अर्थ एवं विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८२ को उल्लंघन करके विस्तार से कहा गया है। कहा जाता है कि योग तो करण के अधीन होने से उपदर्शन मात्र है, क्योंकि योग को करणाधीन माना गया है। करण की सत्ता में ही योग होता है और करण के अभाव में योग का अभाव होता है। 'तस्सेति' यहां पर 'तस्य' अधिकृत योग से संबंधित है। यहां अवयव-अवयवीभाव रूप संबंध में षष्ठी विभक्ति है। यह योग त्रिकाल-विषयक होता है। अतः इसके पहले अतीत में जो सावद्य-व्यापार किया था उसे 'पडिक्कमामि' अर्थात् उस पापकर्म से पीछे हटता हूं। 'निंदामि गरिहामि' अर्थात्-उसकी निंदा करता हूं, गर्दा यानि गुरु की साक्षी | से प्रकट करता हूं। इसमें केवल आत्म-साक्षी से की गयी निंदा है और गुरुसाक्षी से अपने आपको धिक्कारना गर्दा है। | 'तस्स भंते' इस सूत्र में 'भंते' शब्द फिर आया है, वह अतिशयभक्ति के बताने के लिए व गुरु का पुनः आमंत्रण करने के लिए है। इसलिए पुनरुक्ति दोष जैसा नहीं है। अथवा सामायिकक्रिया के प्रत्यर्पण के लिए पुनः गुरु को संबोधित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि समस्त क्रियाओं के अंत में गुरु के प्रति भक्ति प्रदर्शित करनी चाहिए।
भाष्यकार ने और भी कहा है-भदंत या भंते शब्द सामायिक के प्रत्यर्पण का भी वाचक है, यह जानकर सभी क्रियाओं के अंत में प्रत्यर्पण करना चाहिए। (वि. भा. ३५७१) तथा अप्पाणं अर्थात् मेरी आत्मा ने भूतकाल में जो पापव्यापार किया है, उसका वोसिरामि मैं विशेष रूप से त्याग करता हूं। प्रस्तुत सामायिक पाठ में वर्तमानकाल के पापव्यापार को त्याग ने के लिए करेमि भंते सामाइयं भूतकाल के पाप-व्यापार के त्याग ने के लिए तस्स भंते पडिक्कमामि, तथा भविष्यकाल के पाप-व्यापार के त्याग के लिए पच्चक्खामि शब्द का प्रयोग है। इस तरह सामायिक में साधक को तीनों काल.के पाप-व्यापार का त्याग करना होता है। इसलिए तीनों वाक्यों के प्रयोग से पुनरुक्तिदोष प्रतीत नहीं होता। कहा भी है-अइयं निंदामि, पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि। अर्थात्-भूतकाल के पाप की निंदा करता हूं, वर्तमानकाल के लिए उसका संवर (निरोध) करता हूं; और भविष्यकाल के लिए पाप-व्यापार का त्याग करता हूं। इस प्रकार से साधक नियम करता है। अपने घर में या अन्य स्थान पर सामायिक लेकर श्रावक गुरु के पास इरियावही प्रतिक्रमण करे। बाद में गमनागमन से हुए पाप-दोष की आलोचना करके यथाक्रम से विराजमान आचार्य आदि मुनिराजों | को वंदन करें। फिर गुरुमहाराज को वंदनकर आसन (कटासन) आदि की प्रतिलेखना करके बैठे। तत्पश्चात् गुरुमहाराज से धर्मश्रवण करे तथा नया अध्ययन करे. या जहां शंका हो वहां पूछे। इस प्रकार स्थानीय जिनमंदिर या व्याख्यानस्थल हो, वहां यह विधि समझना। परंतु अपने घर पर या जिनमंदिर, व्याख्यानस्थल, उपाश्रय या पौषधशाला में सामायिक ले तो, वह फिर वही रहे; फिर उसे अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है। यह सामान्य श्रावक की विधि कही है। ___ अब राजा आदि महर्द्धिक श्रावक की विधि कहते हैं कि-कोई श्रावक राजा आदि हो और वह हाथी आदि उत्तम सवारी में बैठकर, छत्र-चामर आदि राजचिह्नों से एवं अलंकारों से सुसज्जित होकर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनासहित भेरी आदि उत्तम वाद्यों से आकाशमंडल को गुंजाता हुआ, भाटों और चारणों के प्रशंसागीतों के कोलाहल से स्थानीय जनता में उत्सुकता पैदा करता हुआ, अनेक सामंतों एवं मंडलेश्वर राजाओं के स्पर्धा पूर्वक आडंबर के साथ मुनिजनों के दर्शनार्थ आ रहा हो तो लोग उसकी ओर अंगुली उठाकर कहेंगे-यह महानुभाव श्रद्धालु धर्मात्मा है।' राजा या वैभवशाली व्यक्ति को मुनिदर्शन के लिए श्रद्धातुर देखकर अन्य लोगों के मन भी धर्म की भावना उमड़ती है। वे भी सोचते हैं हम भी कब इस तरह धर्म करेंगे? अतः साधर्मीजन उक्त धर्मश्रद्धालु राजा को हाथ जोड़कर प्रणाम करें, अक्षत आदि उछाले। उन लोगों के नमस्कार के प्रत्युत्तर में राजा स्वयं भी धर्म की अनुमोदना करे-'धन्य है, इस धर्म को; जिसकी ऐसी महान आत्मा सेवा करते हैं। इस प्रकार सर्वसाधारण द्वारा धर्म की प्रशंसा करवाते हुए राजा या महर्द्धिक व्यक्ति जिनमंदिर या साधुसाध्वियों का जहां निवास हो, उस उपाश्रय में जाये। वहां जाते ही छत्र, चामर, मुकुट, तलवार और जूते आदि राजचिह्नों को उतारकर फिर जिनवंदन या साधु-साध्वी को वंदन करे। अगर राजा सामायिक करके उपाश्रय या जिनमंदिर में जायेगा तो हाथी-घोड़े आदि उपाधि साथ में होगी। शस्त्र या सेना आदि होंगे। सामायिक में | ऐसा करना उचित नहीं होगा। मान लो, सामायिक करके राजा पैदल चलकर जाये तो भी अनुचित है। यदि चुपचाप | ऐसे ही सामान्य वेष में या सामान्यजन की तरह श्रावक राजा आयेगा तो कोई खड़ा होकर उसका सत्कार भी नहीं करेगा।
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