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प्रमादाचरण का वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ७५ से ७७ | भेद है। पापमय या हिंसादि वर्द्धक प्रवृत्ति का उपदेश, प्रेरणा या आदेश देना पापकर्मोपदेश नामक दूसरा अनर्थदंड है। हिंसा के उपकरण चाकू, तलवार, छुरा, शस्त्र, अस्त्र आदि किसी को देना अथवा किसी अनाड़ी या अज्ञानी के हाथ में हिंसा के उत्पादक हथियार दे देना, हिंस्रप्रदान नामक तीसरा अनर्थदंड है। स्त्रियों के नृत्य, गीत, कामकथा आदि | कामोत्तेजक रागादि विकार वर्द्धक प्रमाद का सेवन करना चौथा अनर्थदंड है।
शरीर, कुटुंब आदि किसी के लिए कोई जरूरी सावद्यकार्य, आरंभादि करना पड़े या किसी विशेषकारणवश आश्रवसेवन से प्राणी सप्रयोजन दंडित हो, वहां अर्थदंड है। किन्तु जिस आश्रवसेवन से कोई भी प्रयोजन सिद्ध न होता है; वह अनर्थदंड का प्रतिपक्षी रूपी अनर्थदंड है। उसका त्याग करना ही अनर्थदंडविरमणव्रत नामक तीसरा गुणव्रत | है। कहा भी है - जो इंद्रियों या स्वजनादि के निमित्त से सावद्य कार्य करना पड़े, वह अर्थदंड और बिना ही प्रयोजन के | बेकार अपने या दूसरे के लिए हिंसादि आश्रवसेवन करना वह अनर्थदंड है ।।७३-७४।।
अब अपध्यान का स्वरूप और उसका परिणाम बताते हैं
। २४६। वैरिघातो नरेन्द्रत्वं पुरघाताऽग्निदीपने । खेचरत्वाद्यपध्यानं, मुहूर्तात्परतस्त्यजेत् ॥७५॥
अर्थ :
शत्रु का नाश करना, राज्यपद के लिए उखाड़ - पछाड़ या खटपट करना, वर्तमान में नगर में तोड़फोड़ या दंगे करना, नाश करना, आग लगाना अथवा अंतरिक्षयात्रा - अज्ञात अंतरिक्ष में गमन आदि के चिंतन रूपी कुध्यान में डूबे रहना, अपध्यान है। ऐसा दुर्ध्यान आ भी जाय तो मुहूर्त्त के बाद तो उसे अवश्य ही छोड़ दे। दुश्मन की हत्या करने, नगर को उजाड़ने या नगर में तोड़फोड़, दंगे, हत्याकांड आदि करने, आग लगाने या किसी वस्तु को फूंक देने का विचार करना रौद्रध्यान रूप अपध्यान है। चक्रवर्ती बनूं या आकाशगामिनी विद्या का अधिकारी बन जाऊं, ऋद्धिसंपन्न देव बन जाऊं अथवा देवांगनाओं या विद्याधरियों के साथ सुखभोग करने वाला; उनका स्वामी बनूं। इस प्रकार का दुश्चिंतन आर्त्तध्यान है। इस प्रकार के दुश्चिंतनों को मुहूर्त्त के बाद तो अवश्य छोड़ देना चाहिए ।। ७५ ।। अब पापोपदेश रूप अनर्थदंड से विरत होने के लिए कहते हैं
। २४७। वृषभान् दमय क्षेत्रं, कृष षण्ढय वाजिनः । दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोऽयं न कल्पते ॥७६॥
अर्थ :- बछड़ों को वश में करो, खेत जोतो, घोड़ों को खस्सी करो, इत्यादि पापजनक उपदेश दाक्षिण्य (अपने पुत्रादि) के सिवाय दूसरों को पापोपदेश देना श्रावक के लिए कल्पनीय ( विहित ) नहीं है । ७६ ।।
व्याख्या : - गाय के बछड़े (जवान बैल) को बांधकर काबू में कर लो। वर्षा का मौसम आ गया है; अतः अनाज बोने के लिए खेत जोतकर तैयार करो । वर्षाऋतु के पूर्ण हो जाने के बाद बोने का समय चला जायगा । अतः खेत में | क्यारा कर देना चाहिए और झटपट साढ़े तीन दिन में धान बो देना चाहिए। अब कुछ ही दिनों बाद राजा को घोड़े की जरूरत पड़ेगी, इसलिए अभी से इसे बधिया करवा दो। ग्रीष्मऋतु में खेत में आग लगायी जाती है। ये और इस प्रकार के उपदेश हिंसा आदि के जनक होने से पापोपदेश कहलाते हैं। श्रावक को ऐसी परायी पंचायत में पड़कर पापोदेश देना उचित नहीं है। अपने पुत्र, भाई आदि को लोकव्यवहार ( दाक्षिण्य) के कारण प्रेरणा देनी पड़े तो वह अशक्य परिहार है, परंतु निरर्थक पाप में डालने वाला - जैसे शराब पीकर मस्त हो जा, जुआ खेलने से धन की प्राप्ति होगी; अमुक स्त्री या वेश्या के साथ में गमन में बड़ा मजा आता है; फलां के साथ मारपीट कर या मुकद्दमेबाजी कर इस प्रकार का | अनर्थकर पापोपदेश अपने स्वजन को भी नहीं देना चाहिए। मूर्खता से अंटसंट बोलकर किसी को पाप में प्रवृत्त करने में अपना और उसका दोनों का नुकसान है ।। ७६ ।।
अब हिंसा के साधन दूसरों को देने का निषेध करते हैं
।२४८। यन्त्र-लाङ्गल-शस्त्राग्नि- मुसलोदूखलादिकम् । दाक्षिण्याविषये हिंस्रं नार्पयेत् करुणापरः ॥७७॥ अर्थ :पुत्र आदि स्वजन के सिवाय अन्य लोगों को यंत्र (कोल्हू ), हल, तलवार आदि हथियार, अग्नि, मूसल, ऊखली आदि शब्द से धनुष्य, धौंकनी, छुरी आदि हिंसा की वस्तुएं दयालु श्रावक नहीं दे ।। ७७ ।। अब प्रमादाचरण रूप चौथे अनर्थदंड के विषय में कहते हैं
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