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त्याज्य सूक्ष्मजीवसंसक्त भोजन एवं चार प्रकार का अनर्थदंड
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ७१ से ७३
अर्थ :- रात्रिभोजन त्याग में जो गुण हैं, उन सभी प्रकार के गुणों का पूर्णतया कथन तो सर्वज्ञ के सिवाय और कोई नहीं कर सकता ॥७०॥
अब कच्चे दूध, दही या छाछ आदि के साथ द्विदल मिलाकर खाने का निषेध करते हैं।२४२। आमगोरससम्पृक्तद्विदलादिषु जन्तवः । दृष्टाः केवलिभिः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥७१॥ अर्थ :कच्चे दही के साथ मिश्रित मूंग, उड़द आदि द्विदल वगैरह में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति केवलज्ञानियों ने देखी है; अतः उनका त्याग करे ।। ७१ ।।
व्याख्या : - जैनशासन की ऐसी नीति है कि इसमें कई बातें हेतुगम्य होती है और कई बातें होती हैं - आगम| आप्तवचन) गम्य । जो बातें तर्क, युक्ति, अनुभव आदि हेतु से जानी जाती है, उनका प्रतिपादन हेतु द्वारा करता है और | जो बातें हेतु द्वारा न जानी जा सकें या सिद्ध न हो सकें, उनका प्रतिपादन आगम-आप्तवचनों द्वारा करता है; वही आज्ञाआराधक होता है। इसके विपरीत जो हेतुगम्य बातों का आगम द्वारा प्रतिपादन करता है और आगमगम्य बातों का हेतु द्वारा प्रतिपादन करने का प्रयत्न करता है, वह आज्ञाविराधक होता है। कहा भी है- 'हेतुवादपक्ष को जो हेतु से मानता | है और आगमपक्ष को आगम से मानता है तथा स्वसिद्धांत का यथार्थ प्रतिपादन करता है, वह आज्ञाराधक है और इसके | विपरीत कथन करने वाला सिद्धांत विरुद्ध प्ररूपक होने से आज्ञाविराधक है । '
इस न्याय के अनुसार कच्चे गोरस के साथ द्विदल अनाज आदि में जीवों का अस्तित्व हेतु (युक्ति, तर्क या प्रत्यक्ष से) सिद्ध करना या जानना संगत नहीं है; अपितु उन जीवों का अस्तित्व आगम के द्वारा जानकर उक्त वचन पर श्रद्धा करना उचित हैं । केवली भगवंतों ने गोरस के साथ मिश्रित द्विदल अन्न में जीव देखे हैं। आदि शब्द से पकाये हुए वासी भोजन आदि में, दो दिन से अधिक दिनों के दही में, सड़े हुए खाद्य पदार्थ में भी जीव देखे हैं, यह समझ लेना चाहिए। | इस दृष्टि से उन जीवों सहित भोजन तथा कच्चे दूध, दही, छाछ आदि से गोरस के साथ मिश्रित द्विदल - अन्नयुक्त भोजन | का त्याग करना चाहिए। अन्यथा, ऐसे भोजन से प्राणातिपात नामक प्रथम आश्रव का दोष लगता है। केवलियों के वचन निर्दोष होते हैं, इसलिए वे आस- प्रामाणिक पुरुषों के वचन होने से श्रद्धा योग्य मानकर शिरोधार्य करने चाहिए। इसलिए | यह नहीं समझना चाहिए कि मदिरा आदि से लेकर स्वाद में विकृत, बासी या सड़े भोजन तक जो कहा है, वही अभक्ष्य है, शेष सब भक्ष्य है! बल्कि और भी कोई भोज्य वस्तु, जो जीवों से युक्त हों, उसे अपनी बुद्धि से या फिर आगम अभक्ष्य जानकर छोड़ देनी चाहिए ।।७१ || ( सन्मति १४२ )
इसी बात को कहते हैं
| २४३ । जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं, पत्रं चान्यदपि त्यजेत् । सन्धानमपि संसक्तं, जिनधर्मपरायणः ॥ ७२ ॥ अर्थ :- जिनधर्म में तत्पर श्रावक दूसरे जीवों से मिश्रित या संसक्त फल (बेर आदि), फूल, पत्ते, आचार या और भी ऐसे पदार्थ का त्याग करे ||७२||
व्याख्या:- त्रस जीवों से युक्त मधूक (महुड़ा) आदि फल; अरणि, सरसों, महुआ आदि के फूल, चौलाई आदि की भाजी के पत्ते तथा दूसरे भी कंद या मूल (जड़) आदि का त्याग करना चाहिए। आम, नींबू आदि का आचार (अथाणा) नीलण - फूलण या अन्य जीवों से संयुक्त हो तो उनका भी त्यागकर देना चाहिए। क्योंकि जीवदया पालन करने वाले श्रावक, जिससे जीवहिंसा हो, ऐसा अभक्ष्य भोजन नहीं करते । भोगोपभोग का कारण धनोपार्जन भी उपचार से भोगोपभोग कहलाता है। उसका परिमाण भी इसी व्रत के अंतर्गत आ जाता है। इस दृष्टि से श्रावक को खरकम (जिसमें त्रसवध, अतिवध, प्रमादवृद्धि, असंयमवृद्धि, लोकनिन्द्य एवं सत्पुरुषों द्वारा अनुपसेव्य हों, ऐसे निषिद्ध निकृष्ट | व्यवसायों) का त्याग करके निर्दोष एवं अनिन्द्य व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलानी चाहिए। यह सब बातें अतिचार के प्रसंग में बतायेंगे। इस प्रकार भोगोपभोगपरिमाणव्रत का वर्णन पूर्ण हुआ ।। ७२ ।।
अब क्रम से अनर्थदंडविरमणव्रत के वर्णन करने का अवसर प्राप्त है। अतः दो श्लोकों में अनर्थ दंड के चार प्रकार बताते हैं
| २४४ | आर्त्तरौद्रमपध्यानं, पापकर्मोपदेशिता । हिंस्रोपकारि दानं च प्रमादाचरणं तथा ॥ ७३॥
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