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रात्रिभोजन एवं द्विदल का विवरण
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ६७ से ७० अर्थ :- दिन की अनुकूलता होने पर भी जो किसी कल्याण की आशा से रात को खाता है, वह ऐसा ही है, जैसे
कोई उपजाऊ भूमि को छोड़कर ऊषरभूमि में धान बोता है ॥६६॥ व्याख्या :- दिन में भोजन हो सकने पर भी जो मनुष्य कल्याण की कामना से-यानी कुशास्त्र या कुगुरु की प्रेरणा से या परंपरागत संस्कारवश अथवा मोहवश श्रेय की इच्छा से-रात को ही भोजन करता है; वह मनुष्य उस किसान की तरह है; जो उपजाऊ खेत होते हुए भी उसमें धान न बोकर ऊषर भूमि में बोता है। रात्रि में ही भोजन करने का नियम भी ऊषरभूमि में बीज बोने की तरह निरर्थक है। जो नियम अधर्म को रोकता है, वही फलदायक होता है; जो नियम धर्ममार्ग में ही रोड़े अटकाता है; वह निष्फल या विपरीत फल वाला है। वास्तव में, ऐसे विपरीत आग्रह को नियम नहीं कहा जा सकता ।।६६।
अब रात्रिभोजन के फल के संबंध में कहते हैं।२३८। उलूक-काक-मार्जार-गृध्र-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥६७।। अर्थ :- रात्रिभोजन करने वाले मनुष्य अगले जन्म में उल्लू, कौए, बिल्ली, गीध, राक्षस, सूअर, सर्प, बिच्छू और
गोह या मगरमच्छ आदि अधमजातीय तिर्यंचयोनियों में जन्म लेते हैं ।।७।। आगे वनमाला का उदाहरण देकर रात्रिभोजनत्याग का महत्त्व समझाते हैं।२३९। श्रुयते ह्यन्यशपथाननादृत्यैव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं, कारितो वनमालया ॥६८॥ अर्थ :- सुना जाता है, वनमाला ने लक्ष्मण से दूसरे तमाम शपथों को स्वीकार न करके रात्रिभोजन से होने वाले
पाप की शपथ (सौगंध) करवायी थी ।।६८|| व्याख्या :- सुना है, रामायण में बताया गया है कि दशरथपुत्र लक्ष्मण माता-पिता की आज्ञा से राम और सीता के साथ जब दक्षिणपथ की ओर जा रहा था; रास्ते में कुबेरनगर आया; वहां के राजा महीधर की पुत्री वनमाला के साथ उसने विवाह किया। जब वनमाला को अपने पीहर में छोड़कर लक्ष्मण राम के साथ आगे जाने के लिए वनमाला से विदा लेने लगा, उस समय लक्ष्मण के विरह दुःख से दुःखित एवं शीघ्र आगमन की संभावना से वनमाला ने लक्ष्मण से कहा-'प्राणनाथ! आप मेरे सामने सौगंध खाकर पधारिए।' तब लक्ष्मण ने कहा-प्रिये! यदि मैं राम को उनके अभीष्ट देश में पहुंचाकर वापिस लौटकर तुम्हें प्रसन्न न करूं तो मेरी गति भी वही हो, जो प्राणातिपात आदि से होती है। परंतु इस सौगंध (शपथ) से वनमाला को संतोष न हुआ। उसने कहा-'प्रियतम! मैं आपको तभी जाने की अनुमति दे सकती हं. जब आप इस प्रकार की सौगंध खायेंगे कि अगर मैं न लौटा तो रात्रिभोजन करने से जो गति होती है गति हो।' अतः लक्ष्मण ने वनमाला के अनरोध से ऐसी सौगंध खायी; तभी उसने दूसरे देश की ओर प्रस्थान करने दिया। मतलब यह है कि दूसरी शपथों की अवगणना करके वनमाला ने रात्रिभोजन संबंधी शपथ लक्ष्मण को दिलायी। अधिक लिखने से ग्रंथ विस्तृत हो जायेगा, इसलिए यहां इतना ही लिखकर विराम करते हैं ।।६८।।
शास्त्रीय उदाहरण के अलावा अब सर्वसाधारण के अनुभवों से सिद्ध रात्रिभोजन त्याग का फल बताते हैं||२४०। करोति विरति धन्यो, यः सदा निशिभोजनात् । सोऽर्द्ध पुरुषायुषस्य, स्यादवश्यमुपोषितः ।।६९।। अर्थ :- जो सदा के लिए रात्रिभोजन का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है, वह पुरुष धन्य है। सचमुच, वह अपनी
पूरी आयु के आधे भाग (यानी प्रत्येक रात्रि) में उपवासी रहता है ।।९।।
या :- जो धर्मात्मा रात्रिभोजन का त्याग करता है, उस परुष की आधी आय तो उपवास में ही व्यतीत होती है। एक उपवास भी निर्जरा का कारण रूप होने से महाफलदायक होता है, तो सौ वर्ष की आय वाले के पचास वर्ष तो उपवास में व्यतीत होते हैं; उसका कितना फल होगा? यह अंदाजा लगाया जा सकता है। सारांश यह है कि रात्रिभोजन करने में बहुत-से दोष हैं, और उसका त्याग करने में बहुत-से गुण हैं, उन सबका कथन करना हमारी शक्ति से बाहर है ।।६९।।
इसी बात को कहते हैं।२४१। रजनीभोजनत्यागे, ये गुणाः परितोऽपि तान् । न सर्वज्ञादृते कश्चिदपरो वक्तुमीश्वरः ॥७०॥
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