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रात्रिभोजनत्याग के संबंध में अन्य धर्मशास्त्रों व आयुर्वेदशास्त्र के मत
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ५४ से ५९ भोजन के अंदर आकर बहुत-से सूक्ष्म जीव पड़ जाते हैं, इसलिए वह भोजन जीवरहित नहीं रहता । निशीथ - भाष्य में बताया है कि 'यद्यपि मोदक आदि सूखे और प्रासुक पदार्थ रात में तैयार न करके दिन में ही बनाये हुए हों, फिर भी कुंथुआ, काई - फूलण (पनक) आदि बारीक जन्तु रात में भी दिखायी नहीं देते, इसलिए उन्हें न खाये । प्रत्यक्षज्ञानी | केवलज्ञानी सर्वज्ञ अपने ज्ञानबल से उन सूक्ष्मजीवों को जान या देख सकते हैं; फिर भी वे रात्रिभोजन नहीं करते। | यद्यपि दीपक आदि के प्रकाश में चींटी आदि जीव दिखायी देते हैं; लेकिन कई बार रात्रि में भोजन करते समय बारीक | उड़ने वाले जंतु दीपक आदि के प्रकाश में पड़कर या भोजन में गिरकर मर जाते हैं, इसलिए विशिष्ट ज्ञानियों ने मूलव्रत| अहिंसा के भंग होने की संभावना से रात्रिभोजन स्वीकार नहीं किया और न ही विहित किया ।। ५३ ।।
इसी के संबंध में बता रहे हैं
। २२५ । धर्मविन्नैव भुञ्जीत, कदाचन दिनात्यये । बाह्या अपि निशाभोज्यं, यदभोज्यं प्रचक्षते ॥५४ || जिनशासन को न मानने वाले अन्यमतीय लोग भी रात्रिभोजन को अभोज्य कहते हैं। अतः धर्मज्ञ श्रावक सूर्य अस्त हो जाने के बाद कदापि भोजन न करे ।। ५४ ।।
अर्थ :
सूर्यास्त हो जाने के बाद रात्रिभोजन का अन्यमतीय शास्त्रों में इस प्रकार निषेध है।२२६। त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ॥५५॥ अर्थ :- वेद के ज्ञाता सूर्य को ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद इस वेदत्रयी के तेज से ओत-प्रोत मानते हैं। इसलिए सूर्य का एक नाम 'त्रयीतनु' भी है। अतः उस सूर्य की किरणों से पवित्र हुए शुभकार्यों को ही करना चाहिए। उनके अभाव में शुभ कार्य नहीं करे ॥५५॥
इसी बात को आगे कहते हैं
| २२७ | नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वाविहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥५६॥ अर्थ :- आहुति अर्थात् अग्नि में काष्ठ आदि इंधन डालना, स्नान, अंगप्रक्षालन, श्राद्ध कर्म - पितर आदि देवों की पूजा, देवपूजा, दान, यज्ञ आदि शुभकार्य विशेषतः रात्रि में भोजन अविहित है; अकरणीय है ।। ५६ ।। यहां प्रश्न होता है कि ऐसा सुना जाता है कि नक्तभोजन कल्याणकारी है; और वह रात्रि में भोजन किये बिना नहीं | हो सकता; इसके उत्तर में यह श्लोक प्रस्तुत है
| । २२८ दिवस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तु तद् विजानीयात्, न नक्तं निशिभोजनम् ॥५७॥
अर्थ :- दिवस के आठवें भाग में जब सूर्य मंद हो गया हो, उसे ही 'नक्त' जानना चाहिए। 'नक्त' का अर्थ निशा (रात्रि) भोजन नहीं है ।।५७||
व्याख्या : - दिन के आठवें भाग में यानी दिवस के अंतिम आधे पहोर में जो भोजन किया जाय, उसे नक्त कहते
हैं। शब्द की अर्थ में प्रवृत्ति दो प्रकार से होती है - मुख्य रूप से और गौण रूप से। किसी समय इन दोनों में से मुख्य | रूप से व्यवहार करना और किसी समय मुख्य रूप से अर्थप्रवृत्ति करने में बाधा आये तो गौण रूप से करना चाहिए ।
शास्त्रोक्त बाधा आती है, क्योंकि शास्त्र में रात्रिभोजन निषिद्ध यानी नक्त का गौण अर्थ हुआ - थोड़ा सा दिन शेष रहे, उस
| यहां नक्त शब्द की रात्रिभोजन रूप मुख्य अर्थप्रवृत्ति में है, इसलिए नक्त की गौण-अर्थ में प्रवृत्ति करनी चाहिए। | समय भोजन करना । इसी को लेकर कहा गया है कि - सूर्य मंद हो उस समय - दिन के आठवें भाग में भोजन करना; नक्त भोजन समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि मुख्य अर्थ का प्रतिषेध होने से नक्त का अर्थ रात्रिभोजन नहीं करना | चाहिए। अन्य शास्त्रों में भी रात्रिभोजन कहां-कहां निषिद्ध है ? ।। ५७ ।। इसे दो श्लोकों में बताते हैं
| | २२९ । देवैस्तु भुक्तं पुर्वाह्ने, मध्याहने ऋषिभिस्तथा । अपराह्न च पितृभिः, सायाह्ने दैत्य दानवैः ॥ ५८ ॥ | | २३० । सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह! । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥५९॥ अर्थ :- दिन के पहले प्रहर में देव भोजन करते हैं, मध्याह्न ( दोपहर ) में ऋषि आहार करते हैं, अपराह्न (तृतीय प्रहर) में पितर भोजन करते हैं और सांयकाल ( विकाल ) में दैत्यदानव खाते हैं; दिन और रात के
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