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रात्रि भोजन में दोष
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ४४ से ४८ खाना तो दूर रहा; विषम (दुर्भिक्ष पड़े हुए) देश और काल में भक्ष्य अन्न, फल आदि नहीं मिलते हों, कड़ाके की भूख लगी हो; भूख के मारे शरीर कृश हो रहा हो, तब भी पंचोदुंबरफल नहीं खाते, वे प्रशंसनीय है ।। ४३ ।।
अब क्रम प्राप्त अनंतकाय के संबंध में तीन श्लोकों में कहते हैं
| | २१५ । आर्द्र - कन्दः समग्रोऽपि, सर्वः किशलयोऽपि च । स्नुही लवणवृक्षत्वक् कुमारी गिरिकर्णिका ॥४४॥ | | २१६ । शतावरी विरूढानि, गुडूची कोमलाम्लिका । पल्यङ्कोऽमृतवल्ली च, वल्लः शूकरसङ्क्षितः।।४५।। | | २१७ | अनन्तकाया: सूत्रोक्ता अपरेऽपि कृपापरैः । मिथ्यादृशामविज्ञाता, वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥४६॥ अर्थ :- समस्त हरे कंद, सभी प्रकार के नये पल्लव (पत्ते), थूहर, लवणवृक्ष की छाल, कुंआरपाठा, गिरिकर्णिका लता, शतावरी, फूटे हुए अंकुर, द्विदल वाले अनाज, गिलोय, कोमल इमली, पालक का साग, अमृतबेल, शूकर जाति के वाल इन्हें सूत्रों में अनंतकाय कहा है। और भी अनंतकाय हैं, जिनसे मिथ्यादृष्टि अनभिज्ञ हैं, उन्हें भी दयापरायण श्रावकों को यतना पूर्वक छोड़ देना चाहिए । । ४४-४६ ।। व्याख्या : - सभी जाति के कंद सूख जाने पर निर्जीव होने से अनंतकाय नहीं होते। कंद का आमतौर पर अर्थ है - वृक्ष के थड़ के नीचे जमीन में रहा हुआ भाग । वह सब हरा कंद अनंतकाय होता है। कुछ नाम यहां गिनाये जाते हैं-सूरण कंद, अदरक, हल्दी, वज्रकंद, लहसुन, नरकचूर, कमलकंद, हस्तिकंद, मनुष्यकंद, गाजर, पद्मिनीकंद, कसेरू, मोगरी, मूथा, आलू, प्याज, रतालु आदि । किशलय से प्रत्येकवनस्पति के कोमल पत्ते और बीज में से फूटा हुआ प्रथम अंकुर; ये सभी अनंतकाय हैं। थूहर या लवण नामक वृक्ष की सिर्फ छाल ही अनंतकाय है, उसके दूसरे अवयव अनंतकाय नहीं है। कुंआरपाठा, अपराजिता लताविशेष, शक्तिवर्द्धक शतावरी नाम की औषधि, अंकुर फूटे हुए अनाज, जैसे चना, मूंग आदि; प्रत्येक किस्म की गडूची (गिलोय) जो नीम आदि के पेड़ पर लगी होती है और खास कर औषधि के काम में आती है, कोमल इमली, पालक का शाक, अमरबेल, शूकरवाल, (एक प्रकार की बड़ी बेल है, जो जंगल में पायी जाती है और जिसमें से वराहकंद निकलता है) (वल्ल शब्द के पूर्व यहां शूकर इसलिए लगाया गया है कि कोई | साग या दाल (अन्न) के रूप में वाल- रौंगी आदि को अनंतकाय में न मान ले। ये सभी आर्यदेश में प्रसिद्ध हैं । म्लेच्छदेश में भी कहीं-कहीं प्रसिद्ध है; जीवाभिगम आदि विभिन्न सूत्रों में यह बताया गया है। दयापरायण सुश्रावक के लिए ये | त्याज्य है। मिथ्यादृष्टिजन इन सब में अनंतकायत्व से अनभिज्ञ होते हैं; वे तो वनस्पति को भी सजीव नहीं मानते, अनंतकायिक जीवों को मानने की बात तो दूर रही ।।४४-४६।।
अब अज्ञातफल का त्याग करने के लिए कहते हैं
।२१८। स्वयं परेण वा ज्ञातं फलमद्याद् विशारदः । निषिद्धे विषफले वा, माभूदस्य प्रवर्तनम् ॥४७॥৷
अर्थ
स्वयं को या दूसरे को जिस फल की पहचान नहीं है, जिसे कभी देखा, सुना या जाना नहीं है; उस फल को न खाये। बुद्धिशाली व्यक्ति वहीं फल खाये, जो उसे ज्ञात है। चतुर आदमी अनजाने में ( अज्ञानतावश ) अगर अज्ञात फल खा लेगा तो, निषिद्धफल खाने से उसका व्रतभंग होगा, दूसरे, कदाचित् कोई जहरीला फल खाने में आ जाय तो उससे प्राणनाश हो जायगा। इसी दृष्टि से अज्ञातफलभक्षण में प्रवृत्त होने का निषेध किया गया है ।।४७||
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अब रात्रिभोजन का निषेध करते हैं
।२१९। अन्नं प्रेत-पिशाचाद्यैः, सञ्चरद्भिर्निरङ्कुशैः । उच्छिष्टं क्रियते यत्र तत्र नाद्याद् दिनात्यये ॥ ४८।।
अर्थ :- रात में स्वच्छंद घूमने वाले प्रेत, व्यंतर, पिशाच, राक्षस आदि अधमजातीय देव वगैरह द्वारा स्पर्शादि से भोजन झूठा कर दिया जाता है, इसलिए रात में भोजन नहीं करना चाहिए ||४८ ||
कहा भी है- रात को राक्षस आदि पृथ्वी पर सर्वत्र इधर-उधर घूमा करते हैं और वे अपने स्पर्श से खाद्यपदार्थों को झूठे कर देते हैं तथा रात्रि में खाने वालों पर उपद्रव भी करते हैं। और भी देखिए -
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