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रात्रिभोजन का दुष्फल और उसके त्याग सुफल
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ६० से ६६ संधिकाल में यक्ष और राक्षस खाते हैं। इसलिए हे कुलनिर्वाहक युधिष्ठिर! देवादि के भोजन के इन सभी
समयों का उल्लंघन करके रात्रि को भोजन करना निषिद्ध है ।।५८-५९।। पुराणों में कथित रात्रिभोजन निषेध के साथ संगति बिठाकर अब आयुर्वेद से इस कथन की पुष्टि करते हैं।२३१। हन्नाभिपद्मसङ्कोचः चण्डरोचिरपायतः । अतो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि ॥६०।। अर्थ :- सूर्य के अस्त हो जाने पर शरीरस्थित हृदयकमल और नाभिकमल सिकुड़ जाते हैं और उस भोजन के
साथ सूक्ष्मजीव भी खाने में आ जाते हैं, इसलिए भी रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए ।।६।। दूसरे पक्षों के साथ समन्वय करके, अब अपने मत की सिद्धि करते हैं।२३२। संसृजज्जीवसङ्घातं, भुञ्जाना निशिभोजनम् । राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते, मूढात्मानः कथं नु ते? ॥६१।। अर्थ :- जिस रात्रिभोजन के करने में अनेक जीवसमह आकर भोजन में गिर जाते हैं. उस रात्रिभोजन को करने
वाले मूढ़ात्मा राक्षसों से बढ़कर नहीं तो क्या है? ।।११।। जिनधर्म को प्राप्त करके विरति (नियम) स्वीकार करना ही उचित है, अन्यथा विरति रहित मानव बिना सींगपूंछ का पशु है, इसी बात को प्रकट करते हैं।२३३। वासरे रजन्यां च यः खादन्नेव तिष्ठति । शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टः, स्पष्टं स पशुरेव हि ॥६२।।
अर्थ :- जो दिन और रात चरता ही रहता है, वह वास्तव में बिना सींग-पूंछ का पशुही है ।।६।।
अब रात्रिभोजन से भी अधिक त्याग करने वाले की महिमा बताते हैं।२३४। अह्नो मुखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम्।।६३।। अर्थ :- रात्रिभोजन के दोषों से अभिज्ञ जो मनुष्य दिन के प्रारंभ और रात्रि के अंत की दो-दो घड़िया छोड़कर
भोजन करता है, वह विशेष पुण्यभागी होता है ।।३।। व्याख्या :- जो सूर्योदय से दो घड़ी बाद और सूर्यास्त से दो घड़ी पहले (यानी दिन के प्रारंभ से और रात्रि आगमन | से पूर्व की दो-दो घड़ियां छोड़कर) भोजन करता है, वही पुण्यात्मा है, उसी महानुभाव ने रात्रि-भोजन के दोष भलीभांति समझे हैं। वही रात्रि के निकट की दो घड़ी को सदोष समझता है। इसी कारण आगम में विहित है कि सबसे | जघन्य प्रत्याख्यान मुहूतेकालपरिमित नौकारसी (नमस्कारपूर्विका) के बाद और दिन के आखिर में एक महर्त पहले श्रावक अपने भोजन से निवृत्त हो जाता है, उसके बाद प्रत्याख्यान कर लेता है ।।३।।
यहां शंका होती है-यह बताइए कि जो रात्रिभोजन त्याग का नियम लिये बिना ही दिन में भोजन कर लेता है, उसे कुछ फल मिलता है या नहीं? या कोई विशिष्ट फल मिलता है? इसका समाधान आगामी श्लोक द्वारा करते हैं।२३५। अकृत्वा नियमं दोषाभोजनाद् दिनभोज्यपि । फलं भजेन्न निर्व्याजं, न वृद्धिर्भाषितं विना ॥६४। अर्थ :- रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान (त्याग) किये बिना ही जो दिन में भोजन कर लेता है, उसे प्रत्याख्यान विशेष
का फल नहीं मिल सकता। साधारण फल तो मिलता ही है, जैसे वचन से ब्याज की बात खोले बिना __अमानत रखी हुई धनराशि में वृद्धि नहीं होती, वह मूल रूप में ही सुरक्षित रहती है। उसी तरह नियम
लिये बिना ही दिन में भोजन करने वाले को नियमग्रहण का विशेष फल नहीं मिलता ।।६४।।। पूर्वोक्त बात को प्रकारांतर से समझाते हैं।२३६। ये वासरं परित्यज्य, रजन्यामेव भुञ्जते । ते परित्यज्य माणिक्यं, काचमाददते जडाः ॥६५।। अर्थ :- जो मनुष्य सूर्य से प्रकाशमान दिन को छोड़कर रात्रि को ही भोजन करते हैं, वे जड़ात्मा माणिक्यरत्न को
छोड़कर काच को ग्रहण करते हैं ।।५।। यहां प्रश्न होता है-'नियम तो सर्वत्र सर्वदा फल देता है', इसलिए अगर कोई नियम लेता है कि 'मुझे तो रात में ही भोजन करना है, दिन में नहीं, तो ऐसे नियम वाले की कौन-सी गति होती है? इसे ही बताते हैं।२३७। वासरे सति ये श्रेयस्काम्यया निशि भुञ्जते । ते वपन्त्यूषरे क्षेत्रे, शालीन् सत्यपि पल्वले ।।६६।। |
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