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रात्रिभोजन से होने वाली हानियाँ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ४९ से ५३ ।२२०। घोरान्धकाररुद्धाक्षैः पतन्तो यत्र जन्तवः । नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते, तत्र भुञ्जीत को निशि?।।४९।। अर्थ :- घोर अंधेरे में आंखें काम नहीं करतीं; तेल, घी, छाछ आदि भोज्य पदार्थों में कोई चींटी, कीड़ा, मक्खी
आदि जीव पड़ जाय तो वे आंखों से दिखाई नहीं देते। ऐसे में कौन समझदार आदमी रात को भोजन
करेगा? ॥४९॥ अब रात्रिभोजन से प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले दोषों का तीन श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं।२२१। मेधां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्तिं, कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥५०॥ ।२२२। कङ्टको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥५१।। २२३। विलग्नश्च गले वालः, स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥५२॥ अर्थ :- रात को भोजन करते समय भोजन में यदि चींटी खायी जाय तो वह बुद्धि का नाश कर देती है। जूं निगली
जाय तो वह जलोदर रोग पैदा कर देती है। मक्खी खाने में आ जाय तो उलटी होती है, कानखजूरा खाने में आ जाय तो कोढ़ हो जाता है। कांटा या लकड़ी का टुकड़ा गले में पीड़ा कर देता है, अगर सागभाजी में बिच्छू पड़ जाय तो वह तालु को फाड़ देता है, गले में बाल चिपक जाय तो उससे आवाज खराब
हो जाती है। रात्रिभोजन करने में ये और इस प्रकार के कई दोष जो सबको प्रत्यक्ष विदित है।।५०-५२।। व्याख्या :- रात को भोजन करने से कितने नुकसान हैं, यह बताते हुए कहते हैं-भोजन में अगर चींटी आ जाय तो उसके खाने.पर बुद्धिनाश हो जाती है। जूं खाने में आ जाय तो जलोदर रोग हो जाता है। मक्खी भोजन में पड़ जाय तो उसके खाने से उलटी हो जाती है। कानखजूरा खाने से कुष्टरोग हो जाता है। बबूल आदि का कांटा या लकड़ी का टकडा आ जाय तो गले में अटककर पीडा पैदा करता है। बिच्छ साग में पड जाय तो उसे खा लेने पर ताल को फाड देता है। यहां प्रश्न होता है कि चींटी आदि तो बारीक होने से दिखायी नहीं देती, मगर बिच्छू तो बड़ा होने से दिखायी देता है; वह भोजन में कैसे निगला जा सकता है? इसके उत्तर में कहते हैं-बैंगन या इस प्रकार के किसी साग में, जो बिच्छू के-से आकार का होता है, तो बिच्छू को साग समझकर कदाचित् खा लिया जाय तो उसका नतीजा भयंकर होता है। गले में बाल चिपक जाय तो आवाज फट जाती है; साफ नहीं निकलती। ये और इस प्रकार के कई दोष तो प्रत्यक्ष हैं, जिन्हें अन्य धर्मसंप्रदाय व दर्शन वाले भी मानते हैं। इसके अलावा रात्रि में भोजन बनाने में भी छह जीवनिकाय का वध होता है। रात्रि को बर्तन साफ करते समय और धोते समय पानी में रहे हुए जीवों का विनाश होता है। उस पानी को जमीन पर फेंकने से जमीन पर रेंगने वाले कुंथुआ, चींटी आदि बारीक जंतुओं का नाश होता है। इस कारण जीवरक्षा की दृष्टि से भी रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। कहा भी है-रात को बर्तन मांजनें, उन्हें धोने और उस पानी को फेंकने आदि में बहुत-से कुंथुआ आदि जंतु मर जाते हैं, उनकी हिंसा हो जाती है, इसलिए ऐसे रात्रिभोजन के इतने दोष है कि कहे नहीं जा सकते ।।५०-५२।।
यहां शंका होती है कि तैयार की हुई लड्डू आदि मिठाइयाँ या सूखी चीजें अथवा पके फल या सुखे मेवे आदि जिनमें रात को पकाने, बर्तन धोने आदि की झंझट नहीं है, उन्हें अगर रात को सेवनकर लिया तो क्या दोष है? इसी के उत्तर में कहते हैं।२२४। नाप्रेक्ष्य सूक्ष्मजन्तूनि, निश्चयात् प्रासुकान्यपि । अप्युद्यत्केवलज्ञानैर्नादृत्तं यन्निशाऽशनम् ॥५३।। अर्थ :- रात को आंखों से दिखायी न दें, ऐसे सूक्ष्मजंतु भोजन में होने से चाहे विविध प्रासुक (निर्जीव) भोजन
ही हो, रात को नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, उन्होंने ज्ञानचक्षुओं से
जानते-देखते हुए भी रात्रिभोजन न तो स्वीकार किया है, न विहित किया है ।।५३।। . व्याख्या :- दिन में तैयार किया हआ प्रासक और उपलक्षण से रात को नहीं पकाया हआ भोजन हो, फिर भी लड्डू, फल, सूखे मेवे आदि रात को नहीं खाने चाहिए। प्रश्न होता है क्यों? किस कारण से? उत्तर में कहते हैं-सूर्य के प्रकाश के अतिरिक्त अन्य किसी भी तेज से तेज प्रकाश में सूक्ष्म जीव-पनक, कुंथुआ आदि नजर नहीं आते, इस कारण से केवलज्ञानियों ने ज्ञानबल से यह जानकर रात्रिभोजन का विधान नहीं किया और न स्वीकार किया। रात में |