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सुदर्शन की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०१ उच्चारण किया और सूर्य की तरह आकाश में उड़ गये। यह सुनकर सुभग ने विचार किया निश्चय ही यह शब्द आकाशगामिनी विद्या का है। इस दृष्टि से उसने नमस्कारमंत्र का प्रथमपद हृदय में धारण कर लिया। अतः सोते, जागते, उठते, बैठते, चलते, फिरते दिनरात, घर में या बाहर, मलिन वस्त्र, शरीर या झूठे हाथ आदि होने पर भी वह नमो अरिहंताणं पद का उच्चारण करने लगा। सच है, किसी वस्तु को एकाग्रता पूर्वक ग्रहण करने से वह तद्प हो ही जाता है। एक दिन सेठ ने उसके मुंह से यह शब्द सुनकर पूछा-'भद्र! जगत् में उत्कृष्ट प्रभावशाली इस पंचपरमेष्ठी मंत्र का एक पद तुम्हें कहां से प्राप्त हो गया?' सुभग ने सारी बात खोलकर कही। 'बहुत अच्छा! यों कहकर सेठ ने उसे समझाया कि यह केवल आकाशगामिनी विद्या ही नहीं है, अपितु यह स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) को प्राप्त कराने वाली | भी है। तीनों लोकों में जो भी सर्वश्रेष्ठ सुंदर या दुर्लभ वस्तु है, वह सब इसके प्रभाव से अनायास ही मिलती है। जैसे
समुद्रजल की कोई मात्रा नहीं बता सकता, वैसे ही पंचपरमेष्ठी-नमस्कार मंत्र के वैभव को कोई नाप नहीं सकता। तूं बड़ा भाग्यशाली है कि ऐसे दुर्लभ मंत्र को तूंने पुण्ययोग से प्राप्त किया है। परंतु जब कपड़े या शरीर गंदें हों, मुंह हाथ झूठे हों, तब इस गुरुमंत्र का कदापि उच्चारण नहीं करना चाहिए।' इस पर सुभग ने सेठ से कहा-'व्यसनी जैसे व्यसन को नहीं छोड़ सकता, वैसे ही मैं इस मंत्र को कदापि नहीं छोड़ सकता।' सेठ ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-'अच्छा, वत्स! तूं यह नमस्कारमंत्र पूरा सीख ले, जिससे इहलोक व परलोक में तेरा कल्याण हो।' अतः सुभग ने वह नमस्कारमंत्र पूरा सीख लिया। मानो उसे कोई अद्भुत निधान मिल गया हो, इस दृष्टि से उस मंत्र का वह शुभाशय सुभग निरंतर स्मरण (जप) करने लगा। इस मंत्र के प्रभाव से पशुपालक सुभग को भूख-प्यास की कोई पीड़ा भी नहीं रहती। इस तरह वह पंचपरमेष्ठी मंत्र का व्यसनी बन गया। उसके जीवन का अंग बन गया, वह महामंत्र।
यों करते हुए काफी अर्सा व्यतीत हो गया। एक बार वर्षाऋतु के दिनों में निरंतर आकाश में मेघघटा छायी हुई थी। सुभग घर से अपने पशु लेकर जंगल में चराने गया। वापिस लौटते समय ऐसी मूसलधार वर्षा हुई, मानो जलधारा रूपी बाणश्रेणी ने आकाश और पृथ्वी को बांध दिया हो। सुभग को घर आते समय रास्ते में एक छोटी-सी नदी पड़ती थी, उसमें भी आज भयंकर बाढ़ आ गयी थी। अतः जल से लबालब भरी उफनती नदी को देखकर सुभग थोड़ी देर इस किनारे पर ही ठहरकर कुछ सोचने लगा। उसके पशु तो नदी पार करके परले किनारे पहुंच गये थे। सुभग ने | दृढ़विश्वास पूर्वक आकाशगामिनी विद्या की दृष्टि से वह महामंत्र नवकार पढ़ा और छलांग मारकर ऊपर उड़ने का प्रयत्न | |किया, लेकिन वह नदी में गिर पड़ा। अचानक ऊपर से गिरने के कारण वह कीचड़ में जहां रुका था, वहां यमराज | के दांत के समान मजबूत एक लकड़ी का तीखा खूटा पड़ा था, वह एकदम उसके पेट में घुस गया। कील घुसने कीसी असह्य वेदना होने लगी, फिर भी वह पंचपरमेष्ठी-मंत्र का जाप करता रहा। खूटा मर्मस्थान में तीखी कील की तरह गड़ गया था, इस कारण तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी। मरकर तत्काल वह उस सेठ की पत्नी 'अर्हदासी' की| कुक्षि में उत्पन्न हुआ। निःसंदेह नमस्कारमंत्र में तल्लीन होने वाले की सद्गति होती ही है। तीन महीने के बाद | श्रेष्ठिपत्नी को दोहद पैदा हुआ। उसने अपने दोहद का हाल बताया कि मुझे जिनेश्वर-प्रतिमा का सुगंधित जल से अभिषेक करने, विलेपन करने और पुष्पों द्वारा अर्चा करने की अभिलाषा हुई है, साथ ही मुनिराजों को वस्त्रादि दान देकर श्रीसंघ की पूजा करने और दीनदुःखियों को दान देने आदि की भावना हुई है।' यह सुनकर सेठ बड़े प्रसन्न हुए और चिंतामणि के समान सेठानी के दोहद पूर्ण किये। तत्पश्चात् नौ महीने साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर सेठानी ने शुभलक्षण संपन्न एक स्वस्थ एवं सुंदर पुत्र को जन्म दिया सेठ ने बड़ी खुशी के साथ शुभ दिन देखकर पुत्र महोत्सव किया, उसका यथार्थ गुण सम्मत सुदर्शन नाम रखा। माता-पिता के उत्तम मनोरथ के साथ सुदर्शन क्रमशः बड़ा होने लगा। योग्य उम्र होने पर उसने समस्त कलाएँ सीखीं। वयस्क होने पर सेठ ने उसका विवाह साक्षात् लक्ष्मी के समान मनोहर रूपलावण्य संपन्न 'मनोरमा' नामक कन्या के साथ कर दिया। सुदर्शन की सौम्य आकृति केवल माता-पिता को ही नहीं, वहां के राजा एवं अन्य सभी लोगों को चंद्रमा के समान आह्लादक एवं प्रीति उत्पन्न करने वाली थी।
उसी नगर में विद्यासमुद्रपारगामी कपिल नाम का राजपुरोहित रहता था, राजा के हृदय में भी उसका पर्याप्त स्थान | था। जैसे कामदेव के साथ वसंतऋतु की अटूट मैत्री होती है वैसे ही कपिल के साथ सुदर्शन की स्थायी और अटूट
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