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संतोष की महिमा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११५ आशा को तिलांजली देने वाले को आसानी से प्राप्त हो जाता है। किसी का पुण्योदय जाग जाय या किसी का पुण्योदय नहीं है, तो भी आशा पिशाची का पल्ला पकड़ना व्यर्थ है। जिसने आशा-तृष्णा को छोड़कर संतोष वृत्ति धारण कर ली, वही वास्तव में पढ़ा-लिखा, पंडित, समझदार, ज्ञानी, पापभीरु और तपोधन है। संतोष रूपी अमृत से तृप्त व्यक्तियों को जो सुख है, वह पराधीन रहने वाले इधर-उधर धन प्राप्ति के लिए भाग-दौड़ करने वाले असंतोषी व्यक्तियों को कहां नसीब है? संतोष रूपी बख्तर (कवच) को धारण करने वाले पर तृष्णा के बाण कोई असर नहीं करते। उस तृष्णा को कैसे रोकूँ? इस प्रकार के पशोपश में पड़कर घबराओ मत। करोड़ों बातों की एक बात जो मुझे एक वाक्य में कहनी है, वह यह है-'जिसकी तृष्णा-पिशाची शांत हो गयी है, समझो, उसने परमपद प्राप्त कर लिया। आशा की परवशता छोड़कर परिग्रह की मात्रा कम करके अपनी बुद्धि साधुधर्म में अनुरक्त करके भावसाधुत्व के कारण रूप द्रव्यसाधुत्व अर्थात् श्रावकधर्म में तत्पर, मिथ्यादृष्टि को त्यागकर सम्यग्दृष्टि बने हुए मनुष्य विशिष्ट व्यक्ति माने जाते है। और उनसे भी वे उत्तम होते हैं। इससे भी परिमित आरंभ-परिग्रह वाले अन्यधर्मी जिस गति को प्राप्त करते हैं, उस गति को सोमिल के समान श्रावकधर्म का आराधक अनायास ही प्राप्त कर सकता है। महीने-महीने तक उपवासी रहकर कुश के अग्रभाग पर स्थित बिन्दु जितने आहार से पारणा करने वाला अन्यधर्मी बालतपस्वी, संतोषवृत्ति वाले श्रावक की सोलहवीं कला की तुलना नहीं कर सकता। अद्भुत तप करने वाले तामलितापस या पूरणतापस ने सुश्रावक के योग्य गति से नीचे दर्जे की गति प्रास की। इसलिए ऐ चेतन! तूं, तृष्णापिशाची के अधीन बनकर अपने चित्त को उन्मत्त मत बना। परिग्रह की मूर्छा घटाकर संतोष धारण करके यतिधर्म की उत्तमता में श्रद्धा कर, जिससे तूं सात-आठ भवों (जन्मों) में ही मुक्ति प्राप्त कर सकेगा ।।११५।। ॥ इस प्रकार परमार्हत श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्रसूरीश्वर रचित
अध्योत्मोपनिषद् नाम से पट्टबद्ध, अपरनाम योगशास का स्वोपज्ञ-विवरण-सहित द्वितीयप्रकाश संपूर्ण हुआ ।
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