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।। ॐ अर्हते नमः ।।
३. तृतीय प्रकाश :
गुणव्रतों का विवेचन :
अणुव्रतों पर विस्तार से विवेचन करने के पश्चात् अब गुणव्रतों की व्याख्या का अवसर प्राप्त होने से प्रथम गुणवत | का स्वरूप बताते हैं
| | १७२ | दशस्वपि कृता दिक्षु, यत्र सीमा न लङ्घ्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद् गुणव्रतम् ॥१॥ जिस व्रत में दशों दिशाओं में जाने-आने के लिए की गयी सीमा ( मर्यादा) का भंग न किया जाय; वह दिग्विरति नामक पहला गुणव्रत कहलाता है ||१||
अर्थ :
व्याख्या :- पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, ऊर्ध्व और अधो रूप दस दिशाएँ हैं। इन देशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित करना और तदनुसार नियम अंगीकार करना; प्रथम गुणव्रत है। उत्तरगुण रूप होने से भी यह गुणव्रत कहलाता है। अथवा अणुव्रतों की रक्षा करने में गुणकारक (उपकारी) होने से | दिग्विरति नामक प्रसिद्ध गुण - व्रत है ॥१॥
यहां प्रश्न होता है कि अणुव्रतों को हिंसादि पापस्थानक की विरति रूप कहा; यह तो ठीक है; मगर दिव्रत में कौन से पापस्थानक से निवृत्ति होती है, जिससे उसे व्रत कहा जाय? इसके उत्तर में कहते हैं - इस व्रत में भी हिंसादि पापस्थानकों से विरति होती है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं
।१७३। चराचराणां जीवानां विमर्दननिवर्तनात् । तप्ताऽयोगोलकल्पस्य, सद्व्रतं गृहिणोऽप्यदः ||२||
अर्थ :- चारों दिशाओं में क्षेत्र को मर्यादित करने से चराचर जीवों के हिंसादि के रूप में विनाश से निवृत्ति होती है। इसलिए तपे हुए लोहे के गोले के समान गृहस्थ के लिए भी यह व्रत शुभ बताया जाता है ।।२।। व्याख्या :- चर यानी द्वीन्द्रिय आदि त्रस - जीव और अचर यानी एकेन्द्रिय आदि स्थावर - जीव । विभिन्न दिशाओं | में मर्यादित सीमा से बाहर गमनागमन करने से वहां रहे हुए त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा होती है; लेकिन इस गुणव्रत के द्वारा उक्त दसों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेने से वह बाहर रहे हुए जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त हो जाता है। हिंसा की निवृत्ति से हिंसा का प्रतिषेध तो हो ही जाता है। इस कारण गृहस्थ के लिए यह सद्व्रत ही है। हिंसा - प्रतिषेध के समान असत्य आदि दूसरे पापों से भी निवृत्ति हो जाती है। यहां यह शंका होती है कि इस | तरह तो साधु के लिए भी दिशापरिमाण करने का प्रसंग आयेगा; इसके उत्तर में कहते हैं; यह ठीक नहीं है। साधु तो | आरंभ - परिग्रह से सर्वथा मुक्त होता है, गृहस्थ आरंभ और परिग्रह से युक्त होने से वह जायेगा, चलेगा, बैठेगा, उठेगा, खायेगा, पीयेगा, सोयेगा या कोई भी कार्य करेगा; वहां तपे हुए गोले के समान जीव की विराधना (हिंसा) करेगा। | इसीलिए कहते हैं - तपा हुआ लोह का गोला जहां भी जायेगा, वहां जीवों को जलाये बिना नहीं रहेगा; वैसे ही प्रमादी | और गुणव्रत से रहित गृहस्थ भी तपे हुए गोले के समान सर्वत्र पाप कर सकता है। परंतु साधु समिति - गुप्ति से युक्त | और महाव्रतधारी होते हैं; इसलिए वे तपे हुए गोले के इस दोष से सम्पृक्त नहीं होते। इसलिए उन्हें दिग्विरतिव्रत ग्रहण | करने की आवश्यकता नहीं है ||२||
इसके अतिरिक्त यह व्रत लोभ रूपी पापस्थानक से निवृत्ति के लिए भी है। इसी बात को आगे के श्लोक में कहते हैं
| १७४ । जगदाक्रमणमाणस्य, प्रसरल्लोभवारिधेः । स्खलनं विदधे तेन, येन दिग्विरतिः कृता ||३||
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