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संतोष की महिमा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११५ ६. चार कषाय, ७. शोक, ८. हास्य, ९. भय, १०. रति, ११. अरति, १२. जुगुप्सा, १३. वेद तीन और १४. मिथ्यात्व यह चौदह प्रकार के आभ्यंतर परिग्रह है। जैसे वर्षाकाल में चूहे और पागल कुत्ते विष के प्रभाव से उपद्रवी बन जाते हैं; वैसे ही बाह्य-परिग्रह से प्रायः आभ्यंतर परिग्रह-कषाय आदि बढ़ते हैं। परिग्रह रूपी महावायु गहनमूल वाले सुदृढ़तर वैराग्यादि महावृक्ष को भी उखाड़ फेंकता है। परिग्रह के यान पर बैठकर जो मोक्ष पाने की अभिलाषा करता है वह सचमुच लोहे की नौका में बैठकर समुद्र पार करने की आशा करता है। इंधन से पैदा हुई आग जिस प्रकार लकड़ी को नष्ट कर डालती है, उसी प्रकार बाह्य परिग्रह भी पुरुष के धैर्य को नष्ट कर डालता है, जो निर्बल व्यक्ति बाह्य परिग्रह के संगों पर नियंत्रण नहीं कर सकता, वह पामर आभ्यंतर परिग्रह रूपी सेना को कैसे जीत सकता है? एकमात्र परिग्रह ही अविद्याओं के क्रीड़ा करने का उद्यान है; दुःख रूपी जल से भरा समुद्र है, तृष्णा रूपी महालता का अद्वितीय कंद है। आश्चर्य है, धनरक्षा में तत्पर धनार्थी सर्वसंबंधों के त्यागी मुनि से भी साशंक रहते हैं। राजा, (सरकार), चोर, कुटुंबी, आग, पानी आदि के भय से उद्विग्न धन में एकाग्र बना हुआ धनवान रात को सो नहीं सकता। दुष्काल हो या सुकाल, जंगल हो या बस्ती, सर्वत्र शंकाग्रस्त एवं भयाकुल बना हुआ धनिक सर्वत्र सर्वदा दुःखी रहता है। निर्दोष हो या सदोष निर्धन मनुष्य उपर्युक्त सभी चिंताओं से दूर रहकर सुख से सोता है, मगर धनिक जगत् में उत्पन्न दोषों के कारण दुःखी रहता है। धन उपार्जन करने में, उसकी रक्षा करने में, उसका व्यय करने पर या नाश होने पर सर्वत्र और सर्वदा मनुष्य को दुःख ही देता है। कान पकड़कर भालू को नचाने की तरह धन मनुष्य को नचाता है। धिक्कार है ऐसे धन को! मांस के टुकड़े को पाने के लोभ में कुत्ते जिस प्रकार दूसरे कुत्तों से लड़ते हैं, उसी प्रकार धनवान लोग स्वजनों के साथ लड़ते हैं अथवा पीड़ा पाते हैं। धन कमाऊं, उसे रखें, उसे बढ़ाऊं, इस प्रकार अनेक आशाएँ यमराज के दांत रूपी यंत्र में फंसा हुआ भी धनिक नहीं छोड़ता। पिशाची की तरह यह धनाशा जब तक पिंड नहीं छोड़ती, तब तक मनुष्य को अनेक प्रकार की विडंबनाएँ दिखलाती है। यदि तुम्हें सुख, धर्म और मुक्ति के साम्राज्य को पाने की इच्छा है तो आत्मा से भिन्न परपदार्थों का त्यागकर दो, केवल आशातृष्णा को अपने काबू में कर लो। आशा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) रूपी नगर में प्रवेश को रोकने वाली एवं वज्रधाराओं से अभेद्य बड़ी भारी अर्गला है। आशा मनुष्यों के | लिए राक्षसी है। वह विषमंजरी है. पुरानी मदिरा है। धिक्कार है, सर्व दोषों की उत्पादक आशा को! वे धन्य हैं, वे पुण्यवान है और वे ही संसारसमुद्र से पार होते हैं, जिन्होंने जगत् को मोह में डालने वाली आशासर्पिणी को वश में कर लिया है। जगत् में वे ही सुख से रह सकते हैं, जिन्होंने पापलता के समान दुःख की खान, सुखनाशिनी अग्नि के समान अनेक दोषों की जननी आशा-तृष्णा को निराश कर दिया है। तृष्णा रूपी दावाग्नि की महिमा ही कुछ अलौकिक है कि यह धर्ममेघ-रूपी समाधि को तत्काल समाप्त कर देती है। तृष्णापिशाची के अधीन बना हुआ मनुष्य धनवानों के सामने दीन-हीन वचन बोलता है गीत गाता है, नृत्य करता है, हावभाव दिखाता है, उसे कोई भी लज्जाजनक काम करने में शर्म नहीं आती। बल्कि ऐसे कामों को वह अधिकाधिक करता है। जहां हवा भी नहीं पहुंच पाती, जहां सूर्य-चंद्रमा की किरणें प्रवेश नहीं कर सकती, वहां उन पुरुषों की आशा रूपी महातरंगें बेरोकटोक पहुंच जाती है। जो पुरुष आशा के वश में हो जाता है, वह उसका दास बन जाता है। किन्तु जो आशा को अपने वश में कर लेता है, आशा उसकी दासी बन जाती है। आशा किसी व्यक्ति की उम्र के साथ घटने-बढ़ने वाली नहीं है। क्योंकि आदमी ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता जाता है, त्यों-त्यों उसकी आशा-तृष्णा बूढ़ी नहीं होती। तृष्णा इतना उत्पात मचाने वाली है कि उसके मौजूद रहते कोई भी व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य का शरीर बूढ़ा होता है, तब शरीर की चमड़ी भी अकड़ के समान सिकुड़ जाती है, काले केश सफेद हो जाते हैं; धारण की हुई माला भी मुझ जाती है। इस प्रकार शरीर का रंगरूप बदल जाने पर भी आशा कृतकृत्य नहीं होती। आशा ने जिस पदार्थ को छोड़ दिया, वह प्राप्त अर्थ से भी बढ़कर हो जाता है। पुरुष जिस पदार्थ को बहुत प्रयत्न से प्राप्त करने की आकांक्षा करता है, वही पदार्थ 1. अन्य स्थान पर राग द्वेष का कषाय में समावेश कर तीन वेद को तीन प्रकार के परिग्रह में गिना है।
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