________________
अभयकुमार की मुक्ति, चंडप्रद्योत को बांधकर लाना
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११४ पास ही उसने एक मकान किराये पर ले लिया। उस रास्ते से जाते हुए चंडप्रद्योत ने एक दिन उन दोनों वेश्याओं को
। विलास की दृष्टि से चंडप्रद्योत की ओर देखा। फलतः चंडप्रद्योत उन पर मोहित हो गया। महल में पहंचकर चंडप्रद्योत ने उन दोनों गणिकाओं को समझाकर समागम की स्विकृति के लिए दती भेजी। परंतु उन्होंने दती की बात ठुकरा दी। दूसरे दिन फिर दूती ने आकर राजा से समागम के लिए प्रार्थना की। तब भी उन दोनों ने रोष में आकर कुछ अनादर बताया। तीसरे दिन भी उनसे दूती ने याचना की। तब इन दोनों ने कहा-हमारा सदाचारी भाई ही हमारा संरक्षक है। आज से सातवें दिन वह दूसरे गांव जायेगा, तब अगर गुप्त रूप से राजा यहां आयेगा तो समागम हो सकेगा। दूतिका ने जाकर सारी बात चंडप्रद्योत से कही। दूती के चले जाने के बाद अभयकुमार ने चंडप्रद्योत से मिलते-जुलते चेहरे वाले एक आदमी को पागल बनाया और उसका नाम भी चंडप्रद्योत रखा। फिर अभयकुमार लोगों | से कहने लगा-'अरे! मेरा भाई मुझे चैन से नहीं बैठने देता वह मुझे इधर-उधर घूमाता है। उसकी रक्षा की मुझ पर जिम्मेवारी है। समझ में नहीं आता, कैसे उसकी रक्षा की जाय? अभयकुमार रोजाना उसे खाट पर सुलाकर बाहर ले जाता था, मानो वह रोग से पीड़ित हो और उसे वैद्य के यहां ले जाते हों। अब उस पागल को चौराहे से ले जाया जाता, तब वह जोर-जोर से चिल्लाता, आँसू बहाता और रोता हुआ कहता-'अरे, मैं चंडप्रद्योत हूं, मेरा अपहरण करके ले जा रहे हैं ये लोग!' ठीक सातवें दिन वहां गुप्त रूप से हाथी की तरह कामांध चंडप्रद्योत राजा अकेला ही आया। पूर्वसंकेत के अनुसार अभयकुमार के आदमियों ने उसे बांध दिया, तब 'मैं इसे वैद्य के पास ले जा रहा हूं', यों कहते हुए अभयकुमार ने पलंग के साथ नगर में दिन-दहाड़े चिल्लाते हुए राजा चंडप्रद्योत का अपहरण किया। पहले से कोसकोस पर तैयार करके रखे हुए तेजतर्रार घोड़ों से जुते रथ में चंडप्रद्योत को बिठाकर निर्भीक अभयकुमार उसे सीधा राजगृह ले आया। फिर चंडप्रद्योत राजा को उसने श्रेणिक राजा के सामने प्रस्तुत किया। श्रेणिक राजा तलवार खींचकर उसे मारने दौड़ा, मगर अभयकुमार ने बीच में पड़कर उन्हें ऐसा करने से रोका। तत्पश्चात् सम्मान करके वस्त्राभूषण देकर प्रसन्नता से चंडप्रद्योत राजा को छोड़ दिया।
एक बार तेजस्वी गणधर श्री सुधर्मास्वामी के पास संसार से विरक्त होकर किसी लकड़हारे ने दीक्षा ले ली। किन्तु जब वह नगर में विचरण करता, तब नगरवासी उसकी पूर्वावस्था को याद करके जगह-जगह उसकी मजाक उड़ाते और उसकी निंदा करते। इससे क्षुब्ध होकर उसने सुधर्मा स्वामी से कहा-गुरुदेव! मैं यहां रहकर अपमान सहने में असमर्थ हूं। अतः अन्यत्र विहार करना चाहता हूं। इस कारण सुधर्मास्वामी भी अन्यत्र विहार करने की तैयारी कर | रहे थे। अभयकुमार ने जब यह देखा तो उसने गणधरमहाराज से अन्यत्र विहार करने का कारण पूछा। उन्होंने सरलता से अपने अन्यत्र विहार का कारण बता दिया। अभयकुमार ने गणधर महाराज को वंदना करके विनय पूर्वक प्रार्थना कीप्रभो! एक दिन और अधिक यहां विराजने की कृपा करें, उसके बाद आपको जैसा उचित लगे वैसे करना। अभयकुमार ने राज्यकोष से एक-एक करोड़ की कीमत के रत्नों के तीन ढेर निकलवाकर आम बाजार में जहां लोगों का आवागमन ज्यादा रहता था, वहां लगवा दिये और नगर में ढिंढोरा पिटवाकर घोषणा करवा दी-'नागरिको! सुनो; मुझे (अभयकुमार को) रत्नों के ये तीनों ढेर दान करने हैं। यह सुनकर नगरनिवासियों की घटनास्थल पर भीड़ लग गयी। उस भीड़ को संबोधित करते हुए अभयकुमार ने कहा-प्रजाजनो! आप में से जो सचित्त जल, अग्नि और स्त्री इन तीन चीजों का जिंदगीभर के लिए त्याग करेगा. उसे रत्नों के ये तीनों ढेर दिये जायेंगे। बोलो है. कोई तैयार. ऐसा त्याग करने के लिए? उपस्थित लोग कहने लगे-मंत्रिवर! आजीवन ऐसा त्याग करना तो हमारे लिये बहुत कठीन है। ऐसा लोकोत्तर त्याग तो विरले ही कर सकते हैं। इस पर अभयकुमार ने उलाहना देते हुए कहा-'यदि तुममें से कोई भी ऐसा त्याग नहीं कर सकता तो फिर तीन करोड़ मूल्य के रत्न सचित्त जल, अग्नि और स्त्री का आजीवन त्याग करके महामुनि बन जाने वाले लकड़हारे को दे दिये जाय? इस प्रकार के त्यागी साधु ही इस दान के लिए सुपात्र है। लेकिन हम लोग ऐसे 1. यह बात अन्य कथा में नहीं है।
185