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मांस से देवों और पितरों की पूजा करना भी अधर्म है
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ३० से ३१ अर्थ :- निर्दय व्यक्ति के कोई धर्म नहीं होता, मांस खाने वालों में दया कहाँ से हो सकती है? क्योंकि मांसलोलुप
__ व्यक्ति धर्म को तो जानता ही नहीं। अगर जानता है तो उस प्रकार के धर्म का उपदेश नहीं देता ।।२९ व्याख्या :- धर्म का मूल दया है। इसलिए दया के बिना धर्म हो नहीं सकता। मांस खाने वाला जीव हिंसा करता है, इस कारण उसमें दया नहीं होती। अतः उसमें अधर्मत्व नामक दोष लागू होता है। यहां प्रश्न होता है-'चेतनायुक्त पुरुष अपनी आत्मा में धर्म के अभाव को कैसे सहन कर सकता है? इसके उत्तर में कहते हैं-मांसलोलुप व्यक्ति को | दया या धर्म किसी भी बात का भान नहीं होता। कदाचित् उसे इस बात का ज्ञान भी हो तो भी वह मांस छोड़ नहीं सकता वह मन में सोचा करता है कि सभी मेरे समान मांसाहारी हो, अजिनक की तरह अपनी आदत का चेप दुसरों को लगाने वाला व्यक्ति दुसरों को मांस त्याग का उपदेश दे नहीं सकता है? सुनते है, अजिनक नाम का एक पथिक कहीं जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक सर्पिणी ने उसे डस लिया। उसने सोचा कि यह मेरी तरह दूसरे को भी डसे, | इस लिहाज से उसने किसी भी पथिक से नहीं कहा कि इस रास्ते में सर्पिणी डस जाती है। फलतः दूसरे अनजान पथिक
को उसी सर्पिणी ने डसा। उसने भी किसी से नहीं कहा। फलतः तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें आदमी को | भी क्रमशः उस सर्पिणी ने डसा। इसी तरह मांसभोजी भी मांसाहार के पाप से स्वयं तो नरक में जाता ही है, दूसरों
को भी नरक में ले जाता है। 'दुरात्मा स्वयं नष्ट होता है, दूसरे का भी नाश करता है।' इस दृष्टि से वह दूसरों को | उपदेश देकर मांसाहार से रोकता नहीं ।।२९।।
अब मांसभक्षकों की मूर्खता बताते हैं।२०१। केचिन्मांसं महामोहादश्नन्ति न परं स्वयम् । देवपित्रतिथिभ्योऽपि कल्पयन्ति यदूचिरे ॥३०॥ अर्थ :- कितने ही लोग महामूढ़ता से केवल स्वयं ही मांस खाते हों, इतना ही नहीं, बल्कि देव, पितर आदि
पूर्वजों और अतिथि को भी कल्पना करके (पूजा आदि की दृष्टि से) मांस देते या चढ़ाते हैं। क्योंकि उनके • मान्य शास्त्रों (मनुस्मृति अध्याय ५ श्लोक ३२) में उसे धर्म बता रखा है। वही प्रमाण उद्धृत करते
हैं।।३०।। ||२०२। क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव वा । देवान् पितृन् समभ्यर्च्य, खादन् मांसं न दूष्यति ॥३१॥ अर्थ :- स्वयं मांस खरीदकर अथवा किसी जीव को मारकर स्वयं उत्पन्न करके, या दूसरों से (भेंट में) प्राप्त करके
उस मांस से देव और पितरों की पूजा करके (देवों और पितरों को चढ़ाकर) बाद में उस मांस को खाता
है तो वह व्यक्ति मांसाहार के दोष से दूषित नहीं होता ॥३१॥ व्याख्या :- मांस की दूकान से खरीदे हुए मांस को देवपूजा किये बिना उपयोग में नहीं ले सकता। इसलिए कहा कि शिकार से, जाल से या पक्षी को पकड़ने वाले बेहलिये से, मृग या पक्षियों का मांस खरीदकर या स्वयं हिंसादि करके मांस उत्पन्नकर अथवा ब्राह्मण से मांगकर या फिर क्षत्रिय द्वारा शिकार करके दिया हो अथवा दूसरे ने भेंट दिया हो; उस मांस से देवों और पितरों की पूजा कर लेने के बाद में खाये तो मांसभक्षण का दोष नहीं लगता।
यह कथन कितना अज्ञानतापूर्ण है! हमने पहले ही इस बात का खंडन करके समझाया है कि प्राणियों के घात से उत्पन्न होने के कारण मांस को स्वयं खाना अनुचित है तो फिर उसे देवता को चढ़ाना तो और भी अनुचित है। क्योंकि देवताओं ने तो पूर्वसुकृत पुण्य के योग से धातु रहित वैक्रिय शरीर धारण किया है, वे ग्रासाहारी (कौर लेकर आहार करने वाले) नहीं होते, तो फिर वे मांस कैसे खा सकते हैं? जो मांस नहीं खाते हैं, उनके सामने मांस चढ़ाने की कल्पना करने से क्या लाभ? यह तो अज्ञानता ही है। पितर आदि पूर्वज अपने-अपने सुकृत या दुष्कृत के अनुसार गति प्राप्त करते हैं, कर्मानुसार फल भोगते हैं, वे पुत्र आदि के सुकृत से तर नहीं सकते, पुत्र आदि के द्वारा किये गये सुकृतपुण्य का फल उन्हें नहीं मिल सकता। आम के पेड़ को सींचने से नारियल या दूसरे पेड़ों में फल नहीं लग सकते। पूजनीय या आदरणीय अतिथि को नरक में ले जाने का कारणभूत मांस देना उनके व अपने लिये महान अधर्म का हेतु होता है। इस तरह की प्रवृत्ति महामूढ़ता से भरी हुई है। कदाचित् कोई कहे कि 'श्रुतियों या स्मृतियों में ऐसा विधान | (मांस खाना जायज) है, इसलिए उसमें शंका नहीं करनी चाहिए और न उसका खंडन ही करना चाहिए।' इसका
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