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मांसाहार से होने वाले दोष
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक २० से २४
अर्थ :- जो सदा मांस खाता हुआ, दया करना चाहता है, वह जलती हुई आग में बेल रोपना चाहता है। ऐसे मांसभक्षियों के हृदय में दया का होना कठिन है ।।१९।।
व्याख्या :- यहां शंका प्रस्तुत की जाती है कि प्राणी का घात अलग है, और मांस भक्षण अलग चीज है; फिर | मांसभक्षक को प्राणी के प्राण हरण का पाप कैसे लग सकता है? इसके उत्तर में कहते हैं- 'भक्षक भी घातक (हिंसक ) ही है, इसी बात का समर्थन करते हैं
| | १९१ । हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता भक्षकस्तथा । क्रेताऽनुमन्ता दाता च, घातका एव यन्मनुः ॥ २०॥ अर्थ :- शस्त्रादि से घात करने वाला, मांस बेचने वाला, मांस पकाने वाला, मांस खाने वाला, मांस का खरीददार, उसका अनुमोदन करने वाला और मांस का दाता अथवा यजमान, ये सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप (परंपरा) से जीव के घातक ( हिंसक ) ही हैं ||२०||
मनु ने मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के ५१ वे श्लोक में यही बात कही है
अर्थ :
| १९२ । अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः || २१|| मांस खाने का अनुमोदन करने वाला, प्राणी का वध करने वाला, अंग-अंग काटकर विभाग करने वाला, मांस का ग्राहक और विक्रेता, मांस पकाने वाला, परोसने वाला, या भेंट देने वाला और खाने वाला; ये सभी एक ही कोटि के घातक ( हिंसक ) हैं ||२१||
इसी स्मृति के ४८ वें श्लोक में कहा है
| | १९३ । नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा, मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥ २२॥ अर्थ :- प्राणियों का वध किये बिना मांस कहीं प्राप्त या उत्पन्न नहीं होता और न ही प्राणिवध जीवों को अत्यंत दुःख देने वाला होने के कारण स्वर्ग देने वाला है; अपितु वह नरक के दुःख का कारण रूप है। ऐसा सोचकर मांस का सर्वथा त्याग करना चाहिए ||२२||
।१९४। ये भक्षयन्त्यन्यपलं, स्वकीयपलपुष्ट ये । त एव घातका यन्न वधको भक्षकं विना ॥२३॥ अर्थ :- जो पापी स्व मांस की पुष्टि के लिए दूसरों के मांस का आहार करता है। वे ही वास्तव में हिंसक है, क्योंकि खाने वाले के बिना वध करने वाले नहीं होते ।। २३ ।
व्याख्या :- मांस खाने वालों के अलावा प्राणिवध आदि नहीं होता। इस कारण, मांस खाने वाला अधिक पापी | है । अपने जीवन के लिए, जो अपने मांस (शरीर) की पुष्टि के लिए दूसरे का मांस खाता है, वही तो घातक है, खाने | वालों को मांस मुहैया करने के लिए जीववध करने वाला, या बेचने वाला, पकाने वाला आदि घातक कैसे कहे जा सकते हैं? इस कथन के उत्तर में युक्ति पूर्वक कहते हैं-खाने वालों के बिना वध करने वाला वध नहीं करता । इस दृष्टि से | मांसभक्षक को वध करने वाले आदि से बढ़कर बड़ा पापी कहा गया है। क्योंकि मांसभोजन से अपने मांस को पुष्ट करने वाला, अपनी जिह्वा तृप्ति करने वाला, मांस पर क्षणिक जीवन चलाने वाला, दूसरे कितने ही प्राणियों के प्राणहरण करता | है। कहा भी है- दूसरे जीवों को मारकर जो अपने को प्राणवान बनाता है, वह थोड़े ही दिनों में अपनी आत्मा का विनाश | कर लेता है । और अपने एक अल्पजीवन के लिए बहुत से जीवसमूह को मारकर दुःख का भागी बनता है; क्या वह | यह समझता है कि मेरा जीवन अजर-अमर रहेगा ? ।।२२ - २३ ॥
इसी बात को भर्त्सनासहित कहते हैं—
| | १९५ । मिष्टान्नान्यपि विष्ठासादमृतान्यपि मूत्रसात् । स्युर्यस्मिन्नङ्गकस्याऽस्य कृते कः पापमाचरेत् ||२४|| अर्थ :- जिस शरीर में चावल, मूंग, उड़द, गेहूं आदि का स्वादिष्ट भोजन; यहां तक कि विविध प्रकार के मिष्टान्न भी आखिर विष्टा रूप बन जाते हैं और दूध आदि अमृतोपम सुंदर पेयपदार्थ भी मूत्र रूप बन जाते हैं। अतः इस अशुचिमय (गंदे घिनौने) शरीर के लिए कौन ऐसा समझदार मनुष्य होगा, जो हिंसा आदि पापाचरण करेगा ? ।।२४।।
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