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भोगोपभोगपरिमाणवत का लक्षण स्वरूप और प्रकार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ३ से ७ अर्थ :- जिस मनुष्य ने दिग्विरति (दिशापरिमाण) व्रत अंगीकार कर लिया, उसने सारे संसार पर हमला करते
हुए फैले हुए लोभ रूपी महासमुद्र को रोक लिया ।।३।। व्याख्या :- जिस व्यक्ति ने दिग्विरतिव्रत अंगीकार कर लिया अर्थात् जिसने अमुक सीमा से आगे जाने पर स्वेच्छा से प्रतिबंध लगा लिया; तब उसे स्वाभाविक ही अपनी मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्थित सोने, चांदी, धन, धान्य आदि में प्रायः लोभ नहीं होता। अन्यथा लोभाधीन बना हुआ मनुष्य ऊर्ध्व-लोक में देवसंपत्ति की, मध्यलोक में चक्रवर्ती आदि की संपत्ति की और पाताललोक में नागकुमार आदि देवों की संपत्ति की अभिलाषा करता रहता है। तीनों लोकों के धन आदि को प्रास करने के मनसूबे बांधता रहता है और मन ही मन झूठा संतोष करता रहता है। इसीलिए लोभ को तीनों लोकों पर आक्रमण करने वाला बताया है। इसे समुद्र की उपमा दी है। समुद्र जैसे अनेक विकल्प कल्लोलों (लहरों) से आकुल और भयावह होता है, वैसे ही लोभ रूपी समुद्र भी अनेक विकल्प रूपी कल्लोलों से परिपूर्ण है| और उसकी थाह पाना अत्यंत कठिन है। इस प्रकार बढ़ते हुए लोभ को रोकने का काम दिग्विरतिव्रत करता है ।।३।।
इस व्रत के संबंध में कुछ आंतरश्लोक हैं, जिनका अर्थ हम नीचे दे रहे हैं
अणुव्रती सद्गृहस्थ के लिए यह व्रत जीवन पर्यंत के लिए होता है, कम से कम चार महीने के लिए भी यह व्रत |लिया जाता है। निरंतर सामायिक में रहने वाले, आत्मा को वश करने वाले जितेन्द्रिय पुरुषों या साधु-साध्वियों के लिए | किसी भी दिशा में गमनागमन से विरति या अविरति नहीं होती। चारणमुनि ऊर्ध्वदिशा में मेरुपर्वत के शिखर पर भी, एवं तिरछी दिशा में रुचक पर्वत पर भी गमनादि क्रियाएँ करते हैं। इसलिए उनके लिए दिग्विरतिव्रत नहीं होता। जो सुबुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक दिशा में जाने-आने की मर्यादा कर लेते हैं; वे स्वर्ग आदि में अपार संपत्ति के स्वामी बन जाते हैं।
अब प्रसंगवश दूसरे गुणव्रत के संबंध में कहते हैं।१७५। भोगोपभोगयोः सङ्ख्या , शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद्, द्वैतीयीकं गुणव्रतम् ॥४॥ अर्थ :- जिस व्रत में अपनी शारीरिक, मानसिक शक्ति के अनुसार भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं की संख्या के
रूप में सीमा निर्धारित कर ली जाती है, उसे भोगोपभोगपरिमाण नामक दूसरा गुणव्रत कहा है।।४।। अब भोग और उपभोग का स्वरूप समझाते हैं।१७६। सकृदेव भुज्यते यः, स भोगोऽन्नस्रगादिकः । पुनः पुनः पुनर्नोग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ।।५।। अर्थ :- जो पदार्थ एक ही बार भोगा जाय, वह भोग कहलाता है, जैसे अन्न, जल, फूल, माला, तांबूल, विलेपन,
उद्वर्तन, धूप, पान, स्नान आदि। और जिसका अनेक बार उपभोग किया जा सके, उसे उपभोग कहते हैं। उदाहरण के तौर पर-स्त्री, वस्त्र, आभूषण, घर, बिछौना, आसन, वाहन आदि। यह भोगोपभोगपरिमाण व्रत दो प्रकार का है-पहले में, भोगने योग्य वस्तु की मर्यादा कर लेने से होता है
और दूसरे में, अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग करने से होता है ।।५।। इसे ही निम्नलिखित दो श्लोकों में प्रस्तुत करते हैं।१७७। मद्यं मासं नवनीतं मधूदुम्बरपञ्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥६।। ।१७८। आमगोरससम्पृक्तं, द्विदलं पुष्पितौदनम् । दध्यहतियातीतं, कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥७॥ अर्थ :- मद्य दो प्रकार का होता है-एक ताड़ आदि वृक्षों के रस (ताड़ी) के रूप में होता है, दूसरा आटा, महुड़ा
आदि पदार्थों को सड़ाकर बनाया जाता है, जिसे शराब कहते हैं। जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों के भेद से मांस भी तीन प्रकार का है। मांस के साथ उससे संबंधित चमड़ी, हड्डी, चर्बी, रक्त आदि भी समझ लेना। गाय, भैंस, बकरी और भेड़ इन चारों के दूध से मक्खन तैयार होता है, इसलिए चार प्रकार का मक्खन तथा मधु मक्खी, भ्रमरी और कुत्तिका इन तीनों का मधु, उदूंबर (गुल्लर) आदि पांच अनंतकायिक फल, अजाने फल, रात्रिभोजन, कच्चे दही-छाछ के साथ मिले हुए मूंग, चने, उड़द, मोठ
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