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अभयारानी द्वारा सुदर्शन को कामजाल में फंसाने का निर्णय
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०१ वह और प्रपंच न कर बैठे। अतः मैं इस प्रकार का संकल्प करता हूं कि 'आज से मैं कदापि किसी के घर पर अकेला नहीं जाऊंगा।' तत्पश्चात् मूर्तिमान सदाचार सुदर्शन शुभ धर्मकार्य करता हुआ, अपना जीवन सुख से व्यतीत करने लगा। अपने जीवन से कोई गलत आचरण न हो, इस बात का वह बराबर ध्यान रखता था।
एक दिन नगर में नगर के योग्य एवं समग्र जगत के लिए आनंद रूप इंद्रमहोत्सव चल रहा था। शरत्कालीन चंद्रमा और अगस्ति के समान शोभायमान सुदर्शन और कपिल पुरोहित साथ-साथ राजोद्यान में पहुंचे। इधर राजा के पीछेपीछे देवी की तरह विमान रूप पालखी में बैठकर अभयरानी भी कपिला के साथ जा रही थी। ठीक इसी समय मूर्तिमान सतीधर्म की तरह सुदर्शनपत्नी मनोरमा भी अपने ६ पुत्रों के साथ रथ में बैठकर उद्यान में जा रही थी। उसे देखकर कपिला ने अभयरानी से पूछा-स्वामिनी! रूप-लावण्य की सर्वस्वभंडार सुंदरवर्णा देवांगना-सी यह कौन स्त्री रथ में |बैठी आगे-आगे जा रही है? अभयरानी बोली-पंडिता! क्या तुम इसे नहीं जानती? यह साक्षात् गृहलक्ष्मी-सी सुदर्शन
की धर्मपत्नी है।' विस्मित होकर कपिला ने कहा-'यह सुदर्शन की गृहिणी है? तब तो गजब का इसका कौशल है!' रानी-'किस बात में तुम इसका कौशल गजब का मानती हो?' तपाक से कपिला बोली-'इतने पुत्रों को जन्म देकर इसने गजब का कमाल कर दिया है। अभयारानी ने कहा-'पतिपत्नी दोनों की एक-दूसरे के प्रति अनन्यप्रीति हो तो स्त्री इतने पुत्रों को जन्म दे, इसमें कौन-सा कमाल? इस पर झुझलाते हुए कपिला ने कहा-'हाँ, यह सच है, कि पति पुरुष हो तो ऐसा हो सकता है, लेकिन इसका पति सुदर्शन तो पुरुषवेश में नपुंसक है।' तुम्हें कैसे पता लगा कि वह नपुंसक है?' अभयारानी ने पूछा। इस पर कपिला ने सुदर्शन के साथ अपनी आप बीती सुनायी। अभया ने कहा'भोली कपिला! यदि ऐसा है तो तुम ठगी गयी हो! वह परस्त्री के लिए नपुंसक है, अपनी स्त्री के लिए नहीं।' कपिला झेंप गयी और ईर्ष्या से ताना मारते हुए बोली-मैं तो मूर्खा और भोली थी, इसलिए ठगी गयी, आप तो चतुरशिरोमणी है! मैं तो तभी आप में विशेषता समझूगी, जब आप उसे अपने वश में कर लेंगी।' अभया ने कहा-प्रेम और मुक्तहस्त दान से तो बड़े-बड़े वश में हो जाते हैं, जड़ पत्थर भी पिघल जाता है; तो फिर इस सजीव पुरुष की क्या बिसात है| मेरे सामने? कपिला ने तुनकते हुए कहा-बेकार की डींग मत हांको, महारानीजी! आपको अपने कौशल पर इतना गर्व है तो सुदर्शन के साथ रतिक्रीड़ा करके बताइए।' हठ पर चढ़ी हुई रानी ने अहंकार पूर्वक कहा-'कपिले! बस मैंने सुदर्शन के साथ रमण कर लिया, समझ लो! 'रमणी चतुर हो तो बड़े-बड़े वनवासी कठोर तपस्वी भी वश में हो जाते हैं तो यह बेचारा कोमलहृदय गृहस्थ किस बिसात में है?' इसे वश में करना तो मेरे बायें हाथ का खेल है अगर इसे वश में करके इसके साथ सहवास न कर लूं, तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगी।' इस प्रकार दोनों बढ़-बढ़कर बातें करती हुई, उद्यान में पहुंची। वहां दोनों उसी प्रकार स्वच्छंदता से क्रीड़ा करने लगीं, मानो नंदनवन में अप्सराएँ क्रीड़ा करती हों। क्रीड़ा के श्रम से थककर दोनों अपने-अपने स्थान पर चली गयी। __अभयारानी ने अपनी प्रतिज्ञा की बात सर्वविज्ञान, पंडिता, कूटनीति निपुण पंडिता नाम की धायमाता से कही। वह सुनकर बोली-'अरे बेटी! तेरी यह प्रतिज्ञा उचित नहीं है। तूं महात्मा पुरुषों की धैर्यशक्ति से अभी तक अनभिज्ञ है। सुदर्शन का चित्त जिनेश्वर और मुनिवर की सेवाभक्ति में दृढ़ है। धिक्कार है तेरी निष्फल प्रतिज्ञा को! साधारण श्रावक | भी परस्त्री को अपनी बहन समझता है तो फिर इस महासत्वशिरोमणि के लिए तो कहना ही क्या? ब्रह्मचर्यतपोधनी साधु जिसके गुरु हैं, वह महाशील आदि व्रतों का उपासक अब्रह्मचर्य का सेवन कैसे करेगा? जो सदा गुरुकुलवास में रहता हो, सर्वदा ध्यान-मौनपरायण हो, किसकी ताकात है, उसे अपने पास ले आये या बुला ले? सर्प के मस्तक के मणि को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना अच्छा. लेकिन ऐसे दढ परुष का शील खंडित करने की प्रतिज्ञा करना कदापि अच्छा नहीं।' इस पर अभया ने धायमाता से कहा-मांजी! किसी भी तरह से एक बार तम उसे यह बाद जो कुछ भी करना होगा, वह सब मैं कर लूंगी। तुम्हें कुछ भी छल-बल नहीं करना है, सिर्फ उसे किसी उपाय से ले भर आना है। पंडिता क्षणभर कुछ सोचकर बोली-बेटी! यदि तेरा यही निश्चय है तो एक ही उपाय है, उसे यहां लाने का; पर्व के दिन सुदर्शन धर्मध्यान करने हेतु किसी खाली मकान में कायोत्सर्ग में स्थिर होकर रहता है, उस स्थिति में उसे यहां लाया जा सकता है। उसके सिवाय उसे यहां लाना असंभव है। रानी प्रसन्न होकर बोली-'यह बिलकुल
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