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अभय कुमार की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११४ ने मन ही मन सोचा-आज रात को स्वप्न में मैंने नंदा के योग्य वर देखा था; वह यही मालूम होता है। अतः प्रकट में कहा-आज आप मेरे अतिथि बने हैं, इससे मैं धन्य हो गया हूं। आपका समागम तो प्रमादी के यहां गंगा के समागमसरीखा हुआ है। दूकान बंद करके सेठ श्रेणिककुमार को अपने घर ले गया। वहां उसे स्नान कराया, नये बढ़िया कपड़े पहनाये और सम्मानपूर्वक भोजन करवाया। सेठ के यहां रहते-रहते कई दिन बीत गये। एक दिन सेठ ने अपनी पुत्री को सम्मुख करते हुए कुमार से विनति की मेरी इस नंदा नामक पुत्री के साथ आप विवाह करना स्वीकार करें। श्रेणिक ने सेठ से कहा-आप मुझ अज्ञातकुलशील व्यक्ति को कैसे अपनी कन्या दे रहे हैं? सेठ बोला-आपके गुणों से आपके कुल और शील ज्ञात हो ही गये हैं। अत्यधिक आग्रह देखकर श्रेणिक ने उसी तरह नंदा के साथ विवाह कर लिया, जैसे विष्णु ने समुद्रपुत्री (लक्ष्मी) के साथ किया था। विवाह के बाद श्रेणिक नंदा के साथ सुखोपभोग करते हुए वहां उसी तरह रहने लगे, जिस तरह वृक्षघटा में हाथी सुख पूर्वक रहता है।
सेनजित राजा ने दत द्वारा श्रेणिक का सारा वत्तांत जान लिया। क्योंकि राजा दतों की आँखों से देखने के कारण हजार आँखों वाला होता है। अचानक प्रसेनजित् राजा के शरीर में एक भयंकर बिमारी खड़ी हो गयी। कितने ही इलाज करवाये, लेकिन वह जाती ही नहीं थी। अतः अपना अंतिम समय नजदीक जानकर अपने पुत्र श्रेणिक को बुला लाने के लिए एक शीघ्रगामी ऊंट वाले को आदेश दिया। ऊंट वाला शीघ्र वेणातट नगर पहंचा। वह श्रेणिक से मिला और कहा-आपके पिताजी मृत्युशय्या पर पड़े अंतिम घड़ियाँ गिन रहे हैं। आपको उन्होंने शीघ्र बुला लाने के लिए मुझे भेजा है। सुनकर श्रेणिक को बहुत खेद हुआ। उसने नंदादेवी को समझाया और निम्नोक्त मंत्राक्षर लिखकर उसे दे दिया-'हम सफेद दीवाल वाले राजगह नगर के गोपाल है।' फिर श्रेणिक ने ससराल वालों से सबसे विदा लेकर वहां से झटपट कच किया। पिताजी दःसाध्य रोग से पीडित है. कहीं ऐसा न हो जाय कि मेरे जाने ही मेरी अनुपस्थिति में वे चल बसे अथवा उन्हें अधिक पीड़ा न हो जाय। इस लिहाज से श्रेणिक ऊँटनी पर बैठकर झटपट राजगह पहंचा। राजा ने जब श्रेणिक को अपने सामने हाथ जोडे खडा देखा तो उसके हर्षाश्र उमड पडे। फिर स्वर्ण-कलश के निर्मल जल से श्रेणिक का राज्याभिषेक करके उसे मगधदेश का राजा घोषित कर दिया। प्रसेनजित राजा भगवान् पार्श्वनाथ का स्मरण एवं पंचपरमेष्ठीमंत्र का जाप करते हुए समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके देवलोक में पहुंचा।
श्रेणिक राजा ने सारा राज्यभार संभाला। उधर वेणातट में राजा श्रेणिक द्वारा त्यक्ता नंदादेवी ने गर्भ धारण किया। उस समय उसे एक ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ कि 'हाथी पर चढ़कर मैं बहुत ही धूमधाम से जीवों को अभयदान देने वाली
और परोपकारपरायण बनूं।' नंदादेवी के पिता ने राजा से विनति की। अतः नृप ने वह दोहद पूर्ण कराया। ठीक समय नंदादेवी ने उसी तरह एक स्वस्थ संदर बालक को जन्म दिया. जिस तरह पर्वदिशा सर्य को जन्म देती है। शभदिवस में उसके दोहद के अनुरूप मातामह ने बालक का नाम अभयकुमार रखा। क्रमशः बड़ा हुआ। निर्दोष विद्याओं का अध्ययन किया। आठ साल का होते-होते बालक अभयकुमार ७२ कलाओं में निष्णात हो गया। एक दिन अभयकुमार अपने हमजोली लड़कों के साथ खेल रहा था; तभी किसी बालक ने उसे रोषपूर्वक ताना मारा-'तूं क्या बढ़-बढ़कर बोल रहा है; तेरे पिता का तो पता नहीं है।' अभयकमार ने उसे जवाब दिया-मेरे पिता का नाम भद्र लडके ने प्रत्युत्तर में कहा-वह तो तेरी माता का पिता है। अभयकुमार को उस लड़के के वचन तीर की तरह चुभ गये। उसने उसी समय अपनी मां नंदादेवी से पूछा-'मां! मेरे पिता कौन है?' 'भद्र सेठ तेरे पिता है।' नंदा ने कहा। 'भद्र तो तुम्हारे पिता हैं. मेरे पिता जो हों उनका नाम मझे बता दो।' इस तरह पत्र द्वारा बार-बार आग्रह पर्वक पछने पर नंदादेव उदासीन होकर कहा-'बेटा! मेरे पिता ने किसी परदेश से आये हुए युवक के साथ विवाहकर दिया था और जब तूं गर्भ | में था, तब एक ऊँट वाला कहीं से आया था, उसने उनसे एकांत में कुछ कहा और झटपट ऊँट पर बिठाकर वह तेरे पिता को ले गया। उसके बाद उनका कोई अतापता नहीं। इसलिए मुझे यथार्थ पता नहीं कि वे कौन थे? कहां के थे? उनका नाम क्या था?' अभय ने पूछा-माताजी! जाते समय वह कुछ कह गये थे? तब नंदा ने वह अंकित मंत्राक्षर लाकर पुत्र को बताया कि 'ये अक्षर लिखकर वे मुझे दे गये हैं। पत्र में अंकित शब्दों को पढ़कर अभयकुमार बहुत खुश
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