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संतोष की महिमा और बुद्धिमान अभयकुमार
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११४ संतोषी अभयकुमार :
प्राचीनकाल में भारतवर्ष के समृद्धिक्षेत्र के रूप में, विशाल किले से सुशोभित राजगृह नगर था। वहां समुद्रसम गंभीर, समग्र राजाओं को अपने गुणों से आकर्षित करने वाला प्रसेनजित् राजा का शासन था। वह पार्श्वनाथ भगवान के शासनकाल में भ्रमर के समान, अत्यंत अनुरागी सम्यग्दृष्टिसंपन्न, अणुव्रतधारी श्रावक था। उसके बल, तेज और कांति में देवकुमारों को भी मात करने वाले श्रेणिक आदि अनेक पुत्र थे। इन सभी पुत्रों में राज्यधुरा को संभालने के योग्य कौन है? इसकी परीक्षा के लिए राजा ने एक दिन तमाम कुमारों को भोजन के लिए बिठाकर उनकी थाली में खीर परोसी। सभी कुमार जब भोजन करने लगे, तभी बुद्धिमान राजा ने बाघ के समान विकराल मुंह फाड़े हुए शिकारी कुत्ते छोड़ दिये। कुत्तों के.आते ही श्रेणिक के सिवाय सभी राजकुमार थाली पर से एकदम उठ खड़े हुए और झटपट बाहर निकल आये। श्रेणिककुमार दूसरे कुमारों को परोसी हुई थाली में से थोड़ी-थोड़ी खीर कुत्तों को डालता गया और जब तक कुत्ते वह खीर चाटते, तब तक उसने अपनी सारी खीर खा ली। यह देखकर राजा ने सोचा-यह कुमार ही किसी भी उपाय से शत्रुओं को वश करके इस पृथ्वी का उपभोग कर सकेगा। राजा श्रेणिककुमार पर अत्यंत प्रसन्न हुआ। एक दिन राजा प्रसेनजित् ने फिर अपने पुत्रों की परीक्षा करने के लिए सबको टोकरों में सीलबंद लडू तथा मिट्टी के घड़ों में पानी भरकर उनका मुंह बंद करके दीये और उनसे कहा-इन टोकरों में से ढक्कन खोले या सील तोड़े बिना तथा इन घडों के छेद किये बिना पानी पी लेना। श्रेणिक के सिवाय कोई भी राजकुमार न तो लडू खा सका और न पानी ही पी सका। मनुष्य कितना ही बलवान् क्यों न हो, बुद्धि से जो काम कर सकता है, वह बल से नहीं कर सकता। श्रेणिक ने टोकरे को हिला-हिलाकर छिद्रवाली जगह से लडू का चूरा गिराया और खाया; इसी प्रकार पानी के घड़े के नीचे पानी की बूंदें टपक रही थीं, उन्हें चांदी की सिप्पी से इकट्ठी करके पानी पीया। प्रत्युत्पन्नबुद्धि युक्त व्यक्ति की बुद्धि के लिए क्या दुःसाध्य है? श्रेणिककुमार की यह बौद्धिक कुशलता देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। एक दिन प्रसेनजित् के महल में आग लग गयी; तब उसने सभी राजकुमारों से कहा-'मेरे महल में से तुम्हें जो चीज हाथ लगे, ले जाओ। जो चीज जिसके हाथ लगेगी, वही उसका मालिक होगा।' यह सुनकर और राजकुमार तो अच्छे-अच्छे रत्न लेकर बाहर आये, लेकिन श्रेणिक राजकुमार सिर्फ डंका पीटने का एक नगाड़ा लेकर बाहर निकला। राजा ने श्रेणिककुमार से पूछाबेटा! यह क्या और क्यों ले आये हो? श्रेणिक ने उत्तर दिया-यह नगाड़ा है, राजाओं की विजय का प्रथम सूचक चिह्न तो यही है। इसकी आवाज से राजाओं की विजययात्रा सफल होती है। इसलिए स्वामिन्! राजाओं के जयशब्दसूचक इस नगाड़े की आत्मा के समान रक्षा करनी चाहिए। श्रेणिक के परीक्षा में उत्तीर्ण होने से श्रेणिक की प्रखर बुद्धि का लोहा मानकर राजा प्रसेनजित् ने प्यार से उसका दूसरा नाम 'भंभासार' रखा। अपने आपको राज्याधिकार के योग्य मानने वाले अन्य राजपुत्रों को प्रसेनजित् शासनाधिकार के योग्य नहीं मानता था। परंतु राजा प्रसेनजित् श्रेणिक के बुद्धिकौशल को परखने की दृष्टि से ऊपर-ऊपर से उसके प्रति उपेक्षाभाव रखता था, राजा ने दूसरे कुमारों को अलग-अलग देशों का राज्य दे दिया। लेकिन श्रेणिक को यह सोचकर कुछ भी नहीं दिया कि भविष्य में यह सारा राज्य इसी के हाथ में आयेगा। __ इसके बाद अरण्य से जैसे जवान हाथी निकलता है, वैसे ही स्वाभिमानी श्रेणिक पिता का रवैया देखकर अपने नगर से निकल पड़ा और वेणातट नगर पहुंचा। नगर में प्रविष्ट होते ही भद्रश्रेष्ठी की दूकान पर बैठा, मानो साक्षात् लाभोदयकर्म ही हो। नगर में उस दिन कोई महोत्सव था, इसलिए सेठ की दूकान पर उत्तम वस्त्र, अंगराग से संबंधित सुगंधित पदार्थ खरीदने वाले ग्राहकों का तांता लग गया। ग्राहकों की भारी भीड़ होने से सेठ घबरा गया। अतः श्रेणिककुमार ने फुर्ती से पुड़िया आदि बांधकर ग्राहकों को सौदा देने में सहायता दी। श्रेणिककुमार के प्रभाव से सेठ ने उस दिन बहुत ही धन कमाया। सचमुच, पुण्यशाली पुरुष के साथ परदेश में भी संपत्तियों साथ-साथ चलती है। यह देखकर सेठ ने प्रसन्नता पूर्वक पूछा-आज आप किस पुण्यशाली के यहां अतिथि हैं? कुमार बोला-आपका ही! सेठ
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