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गौ संग्रही कुचिकर्ण, तिलक सेठ, नंद राजा की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११२ तिलकसेठ द्वारा धान्य की आसक्ति का परिणाम :
प्राचीन काल में अचलपुर नगर में तिलक श्रेष्ठी नाम का एक वणिक् रहता था। वह शहरों और गांवों में अन्न का संग्रह करता था। अपने ग्राहकों को वह उड़द, मूंग, तिल, चावल, गेहू, चने आदि अनाज डेढ़ा लेने की दर पर देता था। और फसल आने के बाद उनसे डेढ़ा वसूल करता था। धान्य से धान्य की, पशुओं से धान्य की और धन से धान्य की वृद्धि कैसे हो? किस उपाय से धान्य बढ़े? 'तत्त्वचिंतन की तरह इसी बात का रातदिन चिंतन (ध्यान) किया करता था और धान्य खरीदता और पूर्वोक्त मुनाफे पर बेच दिया करता। जब मनुष्य को किसी चीज की धन सवार हो जाती है तो, वह व्यसन की तरह उससे चिपट जाती है, उसकी आसक्ति छूटती नहीं।' यही हाल तिलक सेठ का था। अनाज के संग्रह से करोड़ों कीड़े मर जाते थे, इसकी वह परवाह नहीं करता था। पंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों पर अनाज का बोझ लादने से उन्हें जो पीड़ा होती थी, उसका विचार करके उसे जरा भी दया नहीं आती थी। एक बार किसी निमित्तज्ञ ने उससे कहा-अगले साल दुष्काल पड़ेगा। यह सुनकर उसने अपना पूरा धन लगाकर अनाज खरीदा इतना अन्न खरीद लेने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। इसलिए धनाढ्यों से ब्याज पर धन उधार लेकर अनेक किस्म के अनाजों को खरीदकर संग्रह किया। अनाज भरने के लिए गोदामों की कमी पड़ी तो अपने घर को भी अनाज से भर दिया। लोभी मनुष्य क्या नहीं करता? इतना सब कर लेने के बाद वह उदासीन-सा होकर जगत् के शत्रु दुष्काल को मित्र मानकर दष्काल के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। परंत हआ उसके दश्चिंतन के विपरीत ही। वर्षाऋत के प्रारंभ में ही उसके हृदय को चीरते हए-से बादल आकाश में उठे और गरजने लगे। कछ ही देर में चारों ओर मसलधार वष्टि होने लगी। इसके कारण उसके द्वारा संग्रह किये हुए गेहूं, मूंग, चावल, चने आदि विभिन्न अनाज सड़ने लगे। यह देखकर असंतुष्ट तिलक सेठ विलाप करने लगा-हाय! मेरा अनाज नष्ट हो जायगा। अब मेरे हाथ से अनाज चला जायगा। यों हाय-हाय करते-करते अतृप्त होने से उसका हृदय फट गया, जिससे तत्काल मरकर वह नरक में गया। यह है तिलकश्रेष्ठी के द्वारा अतिलोभ का परिणाम! | धनलोलुप नंद राजा :
प्राचीनकाल में इंद्रनगर का अनुसरण करने वाला, अति मनोहर पाटलिपुत्र नामक श्रेष्ठ नगर था। वहां शत्रुवर्ग को वश करने में इंद्र के समान त्रिखंडाधिपति नंद नाम का राजा राज्य करता था। जिन-जिन पर टेक्स (कर) नहीं लगा हुआ था, उन-उन पर उसने कर लगा दिया। जिन-जिन पर पहले से कर लगा हुआ था, उन पर अधिक कर लगा दिया और अधिक कर देने वाले पर भी अन्यान्य कर लगा दिये। इस प्रकार वह प्रजा में से किसी पर कोई सी अपराध मढ़कर उससे दंड के रूप में धन ले लेता था। वह सदा यही कहा करता-'राजा छल कर सकता है, किन्तु हल नहीं कर सकता। जैसे समस्त जलों का पात्र समुद्र है, वैसे समस्त अर्थ का पात्र राजा है, दूसरा कोई नहीं!' और इस तरह निर्दय होकर येन-केन उपायेन लोगों से धन बटोरने की कोशिश करता था। अतः कुछ ही वर्षों में लोग निर्धन हो गये। | भेड़-बकरियों को चराने के लिए भूमि पर घास भी नहीं मिलता था। उसने विनिमय के लिए सोने की मुद्रा का नामोनिशान उड़ा दिया और बदले में चमड़े के सिक्के चलाये। वह पाखंडियों और वेश्याओं को भारी दंड देकर बदले में उनसे धन ग्रहण करता था। अग्नि सर्वभक्षी होने से किसी को भी नहीं छोड़ती लोग उसके रवैये को देखकर कहने लगे-भगवान् महावीर के निर्वाण के १९०० वर्ष के बाद कल्की राजा होने वाला है; उस भविष्यवाणी के अनुसार क्या यही तो कल्की राजा नहीं है? नंदराजा का प्रचंड कोप देखकर कांसे या पीतल के बर्तन में भोजन करने के बदले लोग मिट्टी के बर्तन में भोजन करने लगे। कई लोगों ने तो निर्भय होकर रहने की दृष्टि से अपने बर्तन दूसरों को दे दिये, यह सोचकर कि बर्तन होंगे तो राजा के द्वारा छीने जाने का डर रहेगा। इस प्रकार अतिलोभी नंद राजा ने सोने के पर्वत बनाये, कुंए में भी सोना भर दिया और अपने समस्त भंडार सोने से भर दिये, फिर भी उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई। ___ अयोध्या के एक हितैषी राजा ने जब रवैये की बातें सुनी तो उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने नंदराजा को समझाने के लिए एक वार्तालाप करने में चतुर दूत को उसके यहां भेजा। दूत वहां पहुंचा और सर्वस्व लक्ष्मी को हड़पने के
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