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सगरचक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११२ लेने वाले पथिकों की थकान दूर करने वाले विशाल महावृक्ष को हजारों शाखाओं की तरह सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्र हुए। सगर के पुत्रों में सबसे बड़ा जन्हुकुमार था। एक बार पिता ने उसके किसी कार्य से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था। एक बार जन्हुकुमार ने पिताजी के सामने अपनी अभिलाषा प्रकट की-'पिताजी! मैं आज उस अमानत रखे वरदान के रूप में यह चाहता हूं कि मुझे चक्रवर्ती के दंडरत्न आदि मिलें, जिन्हें लेकर मैं अपने भाईयों के साथ इसी | भूमंडल में पर्यटन कर आऊं।' सगर ने उसे वे रत्न दे दिये और पर्यटन की आज्ञा दे दी। सूर्य से भी बढ़कर तेजस्वी हजारों छत्र धारण किये हुए जन्हु आदि सगरपुत्र पिताजी का आशीर्वाद लेकर महाऋद्धि और महाभक्तिपूर्वक प्रत्येक जिनबिंब की पूजा करते और यात्रा करते हुए एक दिन अष्टापद पर्वत के निकट आये। ८ योजन ऊँचे और ४ योजन चौड़े उस पर्वत पर जन्हुकुमार अपने बंधुओं एवं परिवार के सहित चढ़े और वहां एक योजन लंबा, आधा योजन चौड़ा, तीन कोस ऊँचा, चार द्वारों वाला मंदिर था, उसमें सबने प्रवेश किया। उस मंदिर में वर्तमान ऋषभादि चौवीस तीर्थंकरों की अपने-अपने संस्थान, परिमाण और वर्णवाली प्रतिमाएँ थीं। उन्होंने उनकी क्रमशः अर्चा की, तत्पश्चात् भरत द्वारा निर्मित १०० भाईयों के पवित्र स्तूपों की वंदना की। फिर श्रद्धाविभोर होकर कुछ सोचकर उच्च स्वर से कहा-मेरी राय में अष्टापद सरीखा स्थान (तीर्थ) अन्यत्र कही भी नहीं है। मैं भी इसी के जैसे और चैत्य बनवाऊंगा। भरत चक्रवर्ती के मुक्ति प्राप्त करने के बाद से अब तक इस पर्वत के शिखर पर स्थित भरतखंड के उनके चक्रवर्तित्व के स्मारक भरतखंड के सारभूत ये चैत्य हैं। उनके बनाये हुए इन चैत्यों को भविष्य में होने वाला कोई राजा विनष्ट न करे, इसके लिए हमें इनकी सरक्षा का प्रबंध करना चाहिए। उसके बाद हजार देवताओं से अधिष्ठित दंडरत्न को हाथ में लेकर अष्टापद के चारों ओर घुमाया। इस कारण भूमि में नीचे कुम्हड़े के समान हजार योजन गहरा एक गड्ढा बन गया। और नीचे पाताललोक में जो भवनपति नागदेवों के भवन बने हुए थे, वे टूट गये।
इस अप्रत्याशित संकट से देव भयभीत होकर अपने स्वामी ज्वलनप्रभ की शरण में आये। उसे अवधिज्ञान से पता लगा कि यह सब जन्हुकुमार की करतूत है। अतः क्रुद्ध होकर जन्हुकुमार के पास आकर उसे फटकारा-अरे मदोन्मत्त! तुमने अकारण ही भयंकर रूप से इतनी जमीन फाड़कर क्यों असंख्य जीव जंतुओं की हत्या की? तीर्थकर अजितनाथ के भतीजे एवं सगरचक्री के पुत्रो! निर्लज्ज कुलकलंकियो! तुमने यह अपराध क्यों किया? इस पर जन्हुकुमार ने कहा-मैंने तो यहां के स्तपों (चैत्यों की रक्षा के लिए ऐसा किया था। आपके भवनों का नाश हआ यह मेरी अज्ञानता से हुआ है। अतः आप लोग मुझे क्षमा करें। इस पर ज्वलन्प्रभ देव ने कहा-अज्ञानता से तुम्हारी यह भूल हुई है, इसलिए मैं तुम्हें क्षमा करता हूं। भविष्य में ऐसी भूल फिर मत करना। यों कहकर देव अपने स्थान को लौट गया। जन्हुकुमार ने फिर अपने भाईयों के साथ विचारविमर्श किया कि हमने दंडरत्न से यह खाई तो बना दी, लेकिन समय पाकर यह खाई तो धूल से भर जायेगी। इसलिए इसी दंड से खींचकर गंगानदी को यहां ले आएँ और उसका प्रवाह इसी खाई में डाल दें। उन्होंने वैसा ही किया। किंत उस जल से नागकुमारों के भवनों को फिर क्षति पहुंची। अतः नागकुमारों के साथ क्रुद्ध ज्वलनप्रभदेव ने आकर उन सबको वैसे ही जलाकर भस्म कर दिया, जैसे दावानल सभी वृक्षों को भस्म कर डालता है। यह देखकर सैनिकों ने दुःखपूर्वक सोचा-हम कायर लोगों के देखते ही देखते हमारे स्वामी को जलाकर भस्म कर दिया, धिक्कार है हमें! यों विचार करके शर्म के मारे सैनिक वहां से चलकर अयोध्या के निकट |आकर रहने लगे। वे बार-बार यह विचार-विनिमय करने लगे कि हम अपने स्वामी को कैसे मुंह बताएँगे? और इस शोकजनक घटना का जिक्र भी उनके सामने कैसे करेंगे? एक दिन एक ब्राह्मण आकर उनसे मिला; उसके सामने उन्होंने सारी आपबीती कहकर उसकी राय मांगी। ब्राह्मण ने कहा-'तुम लोग घबराओ मत। मैं ऐसी सिफ्त से राजा से बात कहूंगा, जिससे राजा को शोक भी नहीं होगा और तुम पर से उनका रोष भी उतर जायेगा।' यों आश्वासन देकर ब्राह्मण | एक अनाथ मृतक (मुर्दे) को लेकर राजदरबार में पहुंचा और वहां जोर-जोर से विलाप करने लगा कि-हाय! मेरा इकलौता पुत्र मर गया। राजा ने उससे विलाप का कारण पूछा तो उसने कहा-मेरे इस इकलौते पुत्र को सांप के काटने से यह मूर्च्छित हो गया है। इसलिए देव! कृपा करके इसे जीवित कर दें। राजा ने सर्प का जहर उतारने वालों को बुलाकर
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