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परिग्रहत्याग आवश्यक, परिग्रह से दोष
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०८ से १०९ परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः (तत्त्वा. ६/१६) इसलिए धन, धान्य आदि पर मूर्छा-ममता-रूप परिग्रह का त्याग करे तथा आवश्यकता से अधिक पदार्थों को परिग्रह रूप मानकर उसका भी त्याग करे ।।१०७।।
सामान्य रूप से परिग्रह के दोष बताते हैं।१६४। त्रसरेणुसमोऽप्यत्र, न गुणः कोऽपि विद्यते । दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुःषन्ति परिग्रहे ॥१०८।। अर्थ :- इस परिग्रह में त्रसरेणु (सूक्ष्मरजकण) जितना भी कोई गुण नहीं है; प्रत्युत उससे पर्वत जितने बड़े-बड़े
दोष पैदा होते हैं ।।१०८॥ __ व्याख्या :- मकान की खिड़की से अंदर छन-छनकर आती हुई सूर्यकिरणों के साथ बहुत ही बारीक अस्थिर रजकणे दिखायी देती हैं, परिग्रह से उक्त रजकण जितना भी कोई लाभ नहीं होता; न परिग्रह के बल पर किसी भी जीव को परभव (अगले जन्म) में किसी प्रकार की सिद्धि या सफलता प्रास होती है, न हुई है। परिग्रहपरिगणित वस्तुएँ | उपभोग या परिभोग आदि करने में जरूर आती है, लेकिन वह कोई गुण नहीं है, बल्कि परिग्रहजनित आसक्ति से दोष, व कर्मबंधादि हानि ही होती है। जिनमंदिर, उपाश्रय आदि बनाने के तौर पर परिग्रह का जो गुण शास्त्र में वर्णित है, वह गुण (कर्मक्षय रूप) नहीं है, परंतु वह परिग्रह सदुपयोग रूप (अनेक लोगों के धर्मध्यान, बोधिलाभ आदि में निमित्त होने से पुण्य रूप) बताया है। वस्तुत : देखा जाय तो जो जिनमंदिर आदि बनवाने में परिग्रह धारण करता है, उसका आशय भी कल्याणकारी (कर्मक्षय रूप) नहीं है। धर्मकार्य के लिए धन की इच्छा करने की अपेक्षा धर्मकार्य के लिए धन की इच्छा ही न करना श्रेष्ठ है। पैर को कीचड़ में डालकर बाद में उसे धोने के बजाय पहले से कीचड़ का दूर से स्पर्श न करना ही अच्छा है। क्योंकि कोई व्यक्ति स्वर्णमणिरत्नमय सोपानों और हजारों खंभों वाला तथा स्वर्णमय भूमितलयुक्तं जिनमंदिर बनवाता है, उससे (उक्त पुण्यबंध रूप कार्य से) भी अधिक (कर्मक्षय-संवरनिर्जराधर्म रूप) फल तप-संयम या व्रताचरण में है। इसलिए 'संबोधसत्तरि वृत्ति' में स्पष्ट बताया है कि उसकी (द्रव्य पूजा की) अपेक्षा तपसंयम में अनंतगुण अधिक है।।१०८।।
'परिग्रह से पर्वत सरीखे महान् दोष पैदा होते हैं, इस बात को प्रकारांत से विस्तार से समझाते हैं।१६५। सङ्गाद् भवन्त्यसन्तोऽपि, रागद्वेषादयो द्विषः । मुनेरपि चलेच्चेतो, यत्तेनान्दोलितात्मनः ॥१०९।। अर्थ :- परिग्रह के संग आसक्ति से राग, द्वेष आदि शत्रु जो पहले नहीं थे, वे पैदा हो जाते हैं। क्योंकि परिग्रह
के प्रभाव से तो मुनि का मन भी डांवाडोल होकर संयम से च्युत हो जाता है ।।१०९।।, व्याख्या :- परिग्रह के संग से जो राग-द्वेष आदि आत्मगुणविरोधी दुर्भाव उदयावस्था में अविद्यमान थे, वे भी प्रकट हो जाते हैं। परिग्रह के संग से तत्संबंधित राग, (आसक्ति, मोह, ममत्व, मूर्छा, लालसा, लोभ आदि) पैदा होता है; उसमें विघ्न डालने या हानि पहुंचाने वाले के प्रति द्वेष (विरोध, वैर, घृणा, ईर्ष्या, कलह, दोषारोपण आदि) पैदा होता है। तथा इन्हीं रागद्वेषादि से संबंधित भय, मोह, काम आदि बंध-बंधनादि एवं नरक गमनादि दोष पैदा होते हैं। प्रश्न होता है, जो रागद्वेषादि मौजूद नहीं है, वे कहां से और कैसे प्रकट हो जाते हैं? इसके उत्तर में कहते हैं-श्रावक आदि अन्य गृहस्थों की बात तो दूर रही; महाव्रती समभावी मुनि का प्रशांत मन भी परिग्रह के संग से चलायमान हो जाता है। मतलब यह कि अनापसनाप वस्तओं के संग्रह से या वस्तओं के पास में होने से मनिका मन भी अस्थिर हो जाता है। और वह राग या द्वेष दोनों में से किसी के भी परिवार से ग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार परिग्रह के संग से मुनि भी मुनिजीवन से भ्रष्ट हो जाता है। कहा भी है-अर्थ से छेदन-भेदन (मारकाट) संकट, परिश्रम, क्लेश, भय, | कटुफल, मरण, धर्मभ्रष्टता और मानसिक अरति (अशांति) आदि सभी दुःख होते हैं। इसलिए सैंकड़ों दोषों के मूलपरिग्रह का पूर्वमहर्षियों ने निषेध किया है। क्योंकि अर्थ अनेक अनर्थों की जड़ है। जिसने अर्थ का एक बार वमन (त्याग) कर दिया है, वह अगर उसे फिर ग्रहण करने की वांछा करता है तो किसलिए व्यर्थ ही वह तप, संयम करता है? (उप. माला ५०-५२) क्या परिग्रह से वध, बंधन, मारण, छेदन आदि अधर्म में गमन नहीं होता? वही परिग्रह अगर यतिधर्म में आ गया तो सचमुच वह प्रपंच ही हो जायेगा ।।१०९।। सामान्य रूप से परिग्रह के दोष बताकर अब उसे मूल श्रावकधर्म के साथ जोड़ते हैं
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