________________
ब्रह्मचर्य पालन के लिए उपयोगी हितशिक्षा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०५ जड़बुद्धि मानव युवती के स्तनकलशों को पकड़कर सुखपूर्वक गाढ़ालिंगन करके सोता है। किंतु कुंभीपाक से होने वाली | वेदना को भूल जाता है। मंदबुद्धि जीव क्षणक्षण में कटाक्ष करने वाली स्त्रियों के बीच निवास करता है, लेकिन स्वयं भवसमुद्र के बीच में पड़ा है, इस बात को भूल जाता है। कामवासना लिप्स मूढ मानव स्त्रियों के उदर की त्रिवली (तीनरेखा) रूप त्रिवेणी की तरंगों से आकर्षित होता है। मगर यह नहीं सोचता, त्रिवेणी के बहाने भवजल में डूबाने | वाली यह वैतरणी नदी है। नर का कामपीड़ित मन नारी की नाभि रूपी वापिका में डूबा रहता है, लेकिन वह मन सुख के स्थान रूप साम्यजल में प्रमादवश नहीं डूबता । स्त्रियों की रोमावली रूपी लता को कामदेव रूपी वृक्ष पर चढ़ने की निःश्रेणी जानता है, परंतु वह यह नहीं जानता कि यह संसार रूपी कारागार में जकड़कर रखनेवाली लोहश्रृंखला | है । अधमनर नारी के विशाल जघन का सहर्ष सेवन करता है, लेकिन वह इस संसारसमुद्र का तट है, यह कदापि नहीं जानता । मंद बुद्धि मानव गधे के समान युवतियों की जांघों का सेवनकर अपने को धन्य मानता है, लेकिन यह नहीं | समझता है कि ये स्त्रियाँ ही तो सद्गति-प्राप्ति में रोड़ा अटकाने वाली है। स्त्रियों की लात खाकर अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता है, मगर यह नहीं समझता कि वे इसी बहाने मुझे अधोगति में धकेल रही है। जिनके दर्शन, स्पर्श और आलिंगन से मनुष्य का शममय जीवन खत्म हो जाता है, ऐसी नारियों को उग्रविषमयी नागिनी समझकर विवेकी पुरुष उनका त्याग करे।
की दाढ़,
स्त्रियाँ चंद्ररेखा जैसी कुटिल, संध्या की लालिमा के समान क्षण-जीवी राग वाली, नदी के समान निम्नगा (नीचगति करने वाली) है, इसलिए त्याज्य है। कामांध बनी हुई अंगनाएँ प्रतिष्ठा, सौजन्य, दान, गौरव, स्वहित या परहित कुछ भी नहीं देखती। क्रुद्ध सिंह, वाघ या सर्प आदि जितनी हानि पहुंचाते हैं, उतनी ही, बल्कि इनसे भी बढ़कर हानि निरंकुश नारी पहुंचाती है। प्रत्यक्ष कामोन्माद - स्वरूपा स्त्रियां हथिनी के सदृश विश्व को आघात पहुंचाने वाली होने से दूर से ही त्याज्य है। ऐसे किसी भी मंत्र का स्मरण करो, किसी भी देव की उपासना करो, जिससे स्त्री| पिशाचिनी शील- जीवन को चूरकर प्राणांत न कर सके। शास्त्रों से जो सूना जाता है या लोगों में जो कुछ कहा जाता है। कि नारी दुःशील है, काम-वासना से स्खलित कर देने वाली है, इस बात में सभी एकमत है। मानो क्रूर ब्रह्मा ने सर्प यम की जीभ और विष के अंकुर को एकत्रित करके नारी को बनाया हो । दैवयोग से बिजली कदाचित् स्थिर हो जाय, वायु चलता हुआ ठहर जाय, मगर नारी का मन कभी स्थिर नहीं रहता । चतुर से चतुर पुरुष भी मंत्र-तंत्र के प्रयोग के बिना भी जिससे ठगे जाते हैं, ऐसी इंद्रजाल विद्या का भला नारी ने कहां अध्ययन किया है? स्त्री में झूठ बोलने की अद्भुत कला भी होती है, कि प्रत्यक्ष (आंखों) देखे हुए या किये हुए अपकृत्यों को भी ऐसी सिफ्त से छिपायेगी कि पता ही न चले, बात को घुमाफिराकर ऐसे ढंग से कहेगी कि सुनने वाला उसे सोलहों आने सच मान | लेगा। जिस तरह पीलिया रोग से पीड़ित या पागल व्यक्ति ही पीले ढेले को सोना मानता है, उसी तरह मोहांध मनुष्य | स्त्रीसंग से होने वाले दुःख को ही सुख रूप मानता है । जटाधारी, शिखाधारी, मुंडितमस्तक, मौनी, नग्न, वृक्ष की छाल | पहनने वाले, तपस्वी या ब्रह्माजी भी क्यों न हो, यदि वह अब्रह्मचारी है तो मुझे वह अच्छा नहीं लगता । खाज खुजलाने | वाला खाज उत्पन्न होने के दुःख को भी जैसे सुख रूप मानता है, वैसे ही दुर्निवार्य कामदेव के परवश बना हुआ जीव दुःख स्वरूप मैथुन को भी सुख रूप मानता है। कवियों ने नारियों की स्वर्णप्रतिमा आदि के साथ तुलना की है; तो | फिर वे कामलोलुप उसी स्वर्णप्रतिमा का आलिंगन करके तृप्त क्यों नहीं हो जाते? स्त्रियों के जो निंदनीय और गुह्य (छिपाने के लिए) अंग है, उन्हीं पर तो मोहमूढ़ मानव फिदा होता है तो फिर उसे दूसरे किस पदार्थ से विरक्त हो? | सचमुच दुःख की बात तो यह है कि अज्ञान और मोह से ग्रस्त मानव मांस और हड्डियों के बने हुए घिनौने अंगों की चंद्र, कमल और मोगरा आदि के साथ तुलना करके इन सुंदर पदार्थों को भी दूषित करता है। नितंब ( चूतड़ ), जांघ, | स्तन आदि से मोटी और भारी नारी को मूढ़ कामी सुरत क्रीड़ा के समय वक्षःस्थल पर आरोपित करता है, लेकिन उसे | वह यों नहीं समझता है कि यह संसारसमुद्र में डूबने के लिए अपने गले में बांधी हुई शिला है। अतः हे बुद्धिशाली | श्रावक ! नारी को भवसमुद्र के ज्वार के समान, चपल - काम रूपी शिकारी की लक्ष्य बनी हुई हिरनी के समान, मदांध | बनाने वाली मदिरा के समान, विषय रूपी मृगतृष्णा के जल के लिए रेगिस्तान के समान, महामोह रूपी अंधकारसमूह के लिए अमावस्या की रात के समान और विपदाओं की खान के समान समझकर नारी का झटपट त्याग करो ।। १०५ ।।
171