________________
अभय का मंत्री बनना
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११४ हुआ और अपनी मां से कहा-'माताजी! मेरे पिता तो राजगृह के राजा हैं। चलो, अब हम वहीं चलेंगे।' भद्रसेठ से विदा लेकर मां-बेटा सामग्री के साथ राजगृह नगर में पहुंचें। माता को परिवार सहित नगर के बाहर एक उद्यान में बिठाकर अभयकुमार ने थोड़े-से लोगों को साथ लेकर नगर में प्रवेश किया।
इधर श्रेणिक राजा ने उस समय ४९९ मंत्री मंत्रणा के करने के लिए एकत्रित किये थे। और ५०० की संख्या पूर्ण करने हेतु जगह-जगह ऐसे ५०० वे उत्कृष्ट पुरुष की खोज हो रही थी। उस व्यक्ति की परीक्षा हेतु राजा श्रेणिक ने एक सूखे कुंए में अपनी अंगूठी डालकर घोषणा कराई-जो व्यक्ति कुंए के किनारे खड़ा-खड़ा इस अंगूठी को हाथ से पकड़ लेगा, वही बुद्धिकुशल महानर इन सभी मंत्रियों का अगुआ बनेगा। घोषणा सुनकर सभी मंत्री पेशोपेश में पड़ गये। वे परस्पर कहने लगे-हमारे लिये तो यह कार्य असंभव-सा लगता है। जो आकाश के तारे हाथ से तोड़कर धरती पर ला सकता है, वही इस अंगूठी को कुंएँ से निकालकर हाथ से पकड़ सकता है। हमारे बस की यह बात नहीं है। उसी समय अभयकुमार हंसता-हंसता वहां आ पहुंचा। उसने लोगों को आपस में बातें करते देख-सुनकर पूछा-क्या यह अंगूठी नहीं ली जा सकती? क्या यह कोई कठिन बात है? लोगों ने उसके तर्क को सुनकर विचार किया-यह कोई प्रतिभा का धनी प्रभावशाली पुरुष है। समय आने पर व्यक्ति के मुख से बोला हुआ वचन ही उसके पराक्रम को प्रकट कर देता है। एकत्रित व्यक्तियों ने अभयकुमार से कहा-भाग्यशाली! राजा की शर्त के अनुसार तुम अंगूठी ले लो और सभी मंत्रियों का नेतृत्व स्वीकारकर लो। अभयकुमार ने कुंएँ में पड़ी हुई अंगूठी पर किनारे खड़े-खड़े ही जोर से गाय का ताजा गोबर फैंका; और उसी समय उस पर जलते हुए घास के पूले डाले; जिससे वह गोबर सूख गया। उसी समय अभयकुमार ने पानी की क्यारी बनवाकर कुंए को पानी से भर दिया। लोगों के आश्चर्य के साथ तुरंत ही गोबर अंगूठी के साथ तैरता हुआ ऊपर आ गया। अतः श्रेणिकपुत्र अभय ने उसी समय हाथ से अंगूठी वाला गोबर पकड़ लिया। बुद्धिमान व्यक्ति अच्छी तरकीब से कोई आयोजन करे तो उसके लिए कोई बात दुष्कर नहीं है। जो वहां खड़े थे, उन | गुप्तचर वगैरह ने तत्काल राजा के पास जाकर यह खबर दी। विस्मित और चकित राजा श्रेणिक ने अभयकमार को अपने पास बुलाया और पुत्र सदृश दृष्टि से वात्सल्यभाव पूर्वक उसका आलिंगन किया। 'संबंध अज्ञात होने पर भी संबंधी को देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है।' राजा श्रेणिक ने अभय से पूछा-तुम कहां से आये हो? मैं वेणातट से आया हूं, अभय ने निर्भीक होकर कहा। राजा ने उससे पूछा-'वत्स! वहां भद्र नाम का प्रसिद्ध सेठ है, उनकी पुत्री नंदा है, वह तो आनंद में है न?' हां, वह आनंद में हैं, अभय ने कहा। नंदा तो गर्भवती थी; उसने किसे जन्म दिया है? किरणों के समान मनोहर दंतपंक्ति युक्त अभयकुमार ने कहा-हां, देव! उसने अभय नामक एक पुत्र को जन्म दिया है। राजा ने फिर पूछा-वह अभय कैसा है, उसका रूप कैसा है? उसमें कैसे गुण आये हैं? अभय ने कहा-आप मुझे ही अभय मान लो; वहीं मैं हूं। यह सुनते ही अभयकुमार को आलिंगन करके गोद में बिठाया और मस्तक चूमकर हर्षित हो नेत्रजलसिंचन किया, मानो स्नेह से स्नान करा रहा हो। 'तेरी माता कुशल तो है न?' इस प्रकार पूछने पर अभयकुमार ने दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा-'स्वामिन्! भ्रमरी के समान आपके चरणकमलों का बार-बार स्मरण करती हुई दीर्घायुषी मेरी माताजी इस समय नगर के बाहर उद्यान में है। यह सुनते ही आनंद से रोमांचित होकर नंदा को लाने के लिए अभयकुमार को आगे करके सर्वसामग्री-सहित उत्सुकता पूर्वक राजा नंदा के सम्मुख उसी तरह चल पड़ा, जिस तरह राजहंस कमलिनी के संमुख जाता है। उस समय नंदा का शरीर दुबला-सा हो रहा था, उसके हाथों की चूड़ियां ढीली हो रही थीं. कपाल पर बाल लटक रहे थे, आंखों में अंजन नहीं था, चोटी गूंथी हुई नहीं थी, वह मैलेकुचेले कपड़े पहनी हुई थी। राजा ने द्वितीया के चंद्र की कला के समान कृश नंदा को आनंद से उद्यान में बैठी हुई देखी। राजा नंदा को आनंदित करके अपने महल में ले गया। जैसे रघुनंदन राम ने सीता को पटरानी बनायी थी, वैसे ही राजा श्रेणिक ने नंदा को पटरानी बनायी! अभयकुमार की पिता पर अत्यंत भक्ति थी तथा उनके सामने अपने आपको अणु से अणु के समान मानता था। इस विनीतता के कारण दुःसाध्य राजा को भी उसने अपने वश में कर लिया था।
181