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परिग्रह से होने वाले दोष
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ११० से ११२ ।१६६। संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥११०।। अर्थ :- प्राणियों के उपमर्दन (पीड़ा या वध) रूप आरंभ होते हैं, वे ही संसार के मूल हैं, उन आरंभों का मूल
कारण परिग्रह है। इसलिए श्रमणोपासक या श्रावक धनधान्यादि परिग्रह अल्प से अल्प करे। यानी
परिग्रह का परिमाण निश्चित्त करके उससे अधिक न रखे ।।११०।। परिग्रह के दोषों पर सिंहावलोकन करते हैं।।१६७। मुष्णन्ति विषयस्तेना, दहति स्मरपावकः । रुन्धन्ति वनिताव्याधाः, सगैरङ्गीकृतं नरम् ॥१११।। अर्थ :- स्वर्ण, धन, धान्यादि परिग्रहों की आसक्ति से जकड़े हुए पुरुष को विषय रूपी चोर लूट लेते हैं; काम
रूपी अग्नि जला देती है, स्त्री रूपी शिकारी उसे संसार की मोहमाया के जाल में फंसा लेते हैं।।१११।। व्याख्या :- जिस प्रकार धन, स्वर्ण आदि परिग्रह वाले व्यक्ति को जंगल में चोर लूट लेते हैं, उसी प्रकार संसार रूपी अरण्य में प्राणी को शब्दादि-विषय रूपी लुटेरे संयम रूपी सर्वस्व लूटकर भिखारी बना देते हैं। इसी तरह आग लगने पर अधिक परिग्रह वाला भागकर झटपट निकल नहीं सकता, वैसे ही संसार रूपी अटवी में रहा हुआ पुरुष चित्तादि दस प्रकार की कामविकार रूपी आग में जल रहा है। अथवा अत्यधिक परिग्रही को जंगल में जाने पर धन या शरीर के लोभी लुटेरे रोक लेते हैं, उस परिग्रही यात्री को आगे बढ़ने नहीं देते, उसी प्रकार भव रूपी अरण्य में धनलुब्ध या शरीर के कामभोग में लुब्ध कामिनियाँ परिग्रहसंगी पुरुष की स्वातंत्र्यवृत्ति रोक देती है; उसे संयममार्ग पर आगे बढ़ने नहीं देती। कहा भी है, कितना भी परिग्रह हो, मनुष्य की इच्छा पूर्ण नहीं होती, बल्कि असंतोष बढ़ता ही जाता है। शास्त्र में बताया है-लोभी मनुष्य के पास कैलाश और हिमालय के समान सोने और चांदी के असंख्य पहाड़ हो जाय और उसे मिल जाय, किंतु इतने पर भी उसकी जरा भी तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि इच्छाएँ तो आकाश के समान अनंत असीम है। (उत्त. ९/४८) आगमों में और भी कहा है-पशुओं के सहित धन, धान्य, सोना, चांदी आदि से परिपूर्ण सारी पृथ्वी यदि किसी को मिल जाय तो भी अकेली वह उसकी इच्छा को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो सकती। यह जानकर ज्ञानाराधन और तपश्चरण करना चाहिए। कवियों ने भी कहा है-तृष्णा का गढ्डा इतना गहरा और अथाह है कि उसे भरने के लिए उसमें कितना ही डाला जाय, फिर भी परिपूर्ण नहीं होता। आश्चर्य तो यह है कि तृष्णा के गड्ढे को पूरा भरने के लिए उसमें बड़े-बड़े पर्वत डाले जाय तो भी खाली का खाली रहता है। जैसे खनिक लोग किसी खान को ज्यों-ज्यों खोदते जाते हैं. त्यों-त्यों वहां खड्डा बढ़ता जाता है. वैसे ही मानव ज्यों-ज्यों धन के लिए मेहनत करता जाता है, त्यों-त्यों असंतोष का गड्ढा बढ़ता जाता है। अथवा जो महापर्वत पर एक बार चढ़ जाता है, वह आकाश में आरूढ़ होने की इच्छा करता है। वह क्या आकाश पर आरुढ हो सकता है? ।।१११।।
यही बात आगे दृष्टांत द्वारा समझाते हैं।१६८। तृप्तौ न पुत्रैः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनैः । न धान्यैस्तिलकः श्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करैः।।११२।। अर्थ :- सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्र हुए, तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई। कुचिकर्ण के पास बहुत-से गायों के
गोकुल थे, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ, तिलकसेठ के पास अनाज के बहुत से कोठार भरे थे, फिर भी उसकी तप्ति न हुई और नंदराजा को सोने की पहाड़ियाँ मिलने पर भी संतोष नहीं हुआ। इसलिए
परिग्रह असंतोष का ही कारण है ॥११२।। अब हम क्रमशः सगर आदि की कथा दे रहे हैंपुत्रलोभी सगर चक्रपती :
उन दिनों अयोध्या में जितशत्रु राजा राज्य करता था। सुमित्र नाम का उसका छोटा भाई युवराज था। दोनों भाई पृथ्वी का पालन करते थे। जितशत्रु राजा के पुत्र हुए-तीर्थंकर अजितनाथ और सुमित्र युवराज के पुत्र हुए-सगर | चक्रवर्ती। जितशत्रु और सुमित्र दोनों के दीक्षा ग्रहण करने के बाद अजितस्वामी राजा हुए और सगर युवराज बने। कुछ अर्सा बीत जाने के बाद अजितनाथ ने दीक्षा ले ली, इससे भरत की तरह सगरचक्रवर्ती राजा बन गया। छाया में विश्राम |