________________
परिग्रह परिमाण वर्णन
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०७ अब मूर्च्छा (आसक्ति) का फल बताकर उसके निमंत्रण के रूप में पंचम अणुव्रत का विवरण प्रस्तुत करते हैं। १६२। असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वामूर्च्छाफलं कुर्यात्, परिग्रह - नियन्त्रणम् ॥१०६॥
अर्थ :- दुःख के कारण रूप असंतोष, अविश्वास और आरंभ को मूर्च्छा के फल मानकर परिग्रह पर नियंत्रण (अंकुश ) करना चाहिए ।। १०६ ।।
व्याख्या : - श्रावक को दुःख के कारणभूत एवं मूर्च्छा के फल रूप परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करना चाहिए। | परिग्रह से असंतोष रहता है। कितना भी मिल जाय, फिर भी तृप्ति नहीं होती, इसलिए वह दुःख का कारण है। मूर्च्छा | वाले को अत्यधिक धन मिल जाय, फिर भी संतोष नहीं होता, बल्कि वह उत्तरोत्तर अधिक से अधिक धन मिलने की आशा ही आशा में बेचेनी महसूस करता है। उसे दूसरे की अधिक संपत्ति देखकर अपनी कम संपत्ति में असंतोष मानने से दुःख होता है। इसलिए कहा है- असंतोषी मनुष्य का कदम-कदम पर अपमान होता है। जब कि संतोष रूपी | ऐश्वर्यसुख वाले को दुर्जनभूमि दूर होती है। अविश्वास भी दुःख का कारण है। जब सारा वातावरण अविश्वसनीय हो जाता है, तब आशंका न करने योग्य पुरुष पर भी कदम कदम पर आशंका की जाती है। अपने धन की रक्षा करने में भी | किसी पर विश्वास नहीं होता। इसलिए कहते हैं- उखाड़ना, खोदना, जमाना, रखना, रात को न सोना, दिन को भी साशंक सोना, गोबर से लीपना, सदा निशान करना, विपरीत निशान करना, मूर्च्छा (आसक्ति) के कारण (मनुष्य या किसी भी प्राणी को शंकावस मार डालना आदि) प्राणातिपात आदि आरंभ करना, या मारने की स्वीकृति देना (जैसे पुत्र पिता को, पिता पुत्र को, भाई सगे भाई को धन के लिए मरवा देता है), रिश्वत लेना या देना, झूठी साक्षी देना या | दिलाना; सफेद झूठ बोलना इत्यादि अनर्थों में प्रवृत्त होता है। अधिक बलवान होने पर धनलोभी यात्रियों को पकड़कर लूटता है, दीवार में सेंध लगाता है, सूराख करता है; धनलोभवश परस्त्रीगमन करता है तथा नौकरी, खेती, पशुपालन या व्यापार आदि करता है। धनासक्त मनुष्य मम्मण वणिक् की तरह नदी आदि में प्रवेश करने का दुःख उठाकर | लकड़ियाँ बाहर निकालता है।
यहां प्रश्न होता है कि दुःख का कारण मूर्च्छाफल समझकर परिग्रह का त्याग करना चाहिए; इस वचन को युक्ति |पूर्वक कैसे समझा जाय? इसके उत्तर में कहते हैं- परिग्रह मूर्च्छा का कारण होने से परिग्रह भी एक प्रकार से मूर्च्छा ही है। अथवा 'मूर्च्छा परिग्रहः ' इस प्रकार सूत्रकार के वचनानुसार मूर्च्छा ही परिग्रह है । यह कथन निश्चयनय की दृष्टि से है । मूर्च्छा से रहित धन-धान्यादि हो तो वह अपरिग्रह है। यह कथन भी निश्चयनय की दृष्टि से है। कहते हैं| ममकार- या ममत्व के बिना अगर कोई पुरुष वस्त्र, आभूषण आदि से अलंकृत हो तो भी वह अपरिग्रही है। और | ममकार - ममत्व से युक्त व्यक्ति नग्न हो, फिर भी वह परिग्रही है । गाँव या घर में प्रवेश करते हुए कर्म या अल्प (पदार्थ) ग्रहण करने पर भी अगर वह परिग्रह या ममत्व से रहित है तो उसके जैसा अपरिग्रही कोई हो नहीं सकता। वह जो भी वस्त्र, पात्र, कंबल या आसन आदि ग्रहण करता है, वह संयमयात्रा के लिए व लज्जानिवारण के लिए करता है। | संसारसमुद्र के पारगामी महर्षि भगवान् महावीर ने उसे परिग्रह नहीं कहा है। (दशवै. ६/२०-२१) यह सब कथन स्पष्ट है ।। १०६ ।।
अब प्रकारांतर से परिग्रह - त्याग की आवश्यकता बताते हैं
।१६३। परिग्रहमहत्वाद्धि, मज्जत्येव भवाम्बुधौ । महापोत इव प्राणी, त्यजेत्तस्मात् परिग्रहम् ॥१०७॥
अर्थ :- जैसे अधिक वजन हो जाने पर जहाज समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही प्राणी परिग्रह के बोझ के कारण संसार रूपी समुद्र में डूब जाता है। इसलिए परिग्रह का त्याग करना चाहिए ।। १०७ ।।
व्याख्या :- जैसे अमर्यादित धन, धान्य आदि माल से भरा हुआ जहाज अत्यधिक भार हो जाने से समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही जीव भी अगर धन, धान्य, घर, मकान, जमीन-जायदाद व खेत आदि वस्तुएँ अमर्यादित यानी | आवश्यकता की सीमा से अधिक रखता है तो वह भी उस परिग्रह के बोझ से दबकर नरक आदि दुर्गत्तियों में डूब जाता | है। कहा भी है- महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रियजीवों का वध इन चारों में से किसी भी एक के होने पर जीव नरकाय उपार्जित करता है और अतिआरंभ एवं अतिपरिग्रह के कारण नरकायु का बंध करता है। बाह्यारम्भ
172