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रावण की मृत्यु, सुदर्शन की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०० १०१ | पर चलाया, जिससे रावण का मस्तक कटकर गिर पड़ा। किसी समय अपने ही घोड़े से व्यक्ति गिर पड़ता है।' रावण के निधन के बाद स्वर्णशलाका के समान निर्मल शील से सुशोभित सीता से मिले और उसे लेकर अपने निवास पर आये । विभीषण को लंका की राजगद्दी पर बिठाकर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, बंधु पत्नी एवं समस्त मित्रों, स्वजनों के साथ अयोध्या लौटे। परस्त्रीगमन की आकांक्षा के कारण रावण नष्ट हो गया और उसे नरक का अतिथि बनना | पड़ा । । ९९ । । यह रावण की कथा संक्षेप में कही है।
यह सीता-रावण कथा का हार्द है। इस उदाहरण से दुस्त्यजा परस्त्री का त्याग करना चाहिए । यही बात अगले श्लोक में कहते हैं
।१५६। लावण्यपुण्यावयवां, पदं सौन्दर्यसम्पदः । कलाकलापकुशलामपि जह्यात् परस्त्रियम् ॥१००॥
अर्थ :- परस्त्री चाहे कितनी ही लावण्ययुक्त हो, शुभ अंगोपांगों से युक्त हो, सौंदर्य एवं संपत्ति का घर हो तथा विविध कलाओं में कुशल हो, फिर भी उसका त्याग करना चाहिए || १००||
व्याख्या :- परस्त्री को यहां 'दुस्त्यजा' कहा है, उसका क्या कारण है? यह इस श्लोक में बताया गया हैलावण्य, रूप आदि में कई स्त्रियां इतनी अधिक स्पृहणीय होती है, कई पूर्वपुण्य के कारण सुंदर एवं सुडौल अंगोपांगों के कारण दर्शनीय होती है, सौंदर्यसंपदा में बढ़कर होती है, स्त्रियोचित ६४ कलाओं में प्रवीण होती है, अतः इन कारणों पुरुष मोहवश छोड़ना नहीं चाहता, इसलिए परस्त्री को 'दुस्त्यजा' कहा। अतः परस्त्री चाहे कितनी सुंदर, कलानिपुण, चतुर एवं गुणों से सुशोभित हो, वह परायी ही है, इसलिए त्याज्य समझकर छोड़नी चाहिए ।। १०० ।।
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परस्त्रीगमन के दोष बताकर अब परस्त्रीत्याग की प्रशंसा करते हैं
।१५७। अकलङ्कमनोवृत्तेः परस्त्री - सन्निधावपि । सुदर्शनस्य किं ब्रूमः सुदर्शनसमुन्नतेः ? || १०१ ||
अर्थ :- परस्त्री के पास रहने पर भी निष्कलंक मनोवृत्ति वाले सुदर्शन महाश्रावक, जिसके शुभदर्शन से ही जीवन की उन्नति होती है अथवा जैनदर्शन की उन्नति करने वाले की कितनी प्रशंसा करें? ।। १०१ ।।
व्याख्या :- अपने पर आसक्त परस्त्री के निकट रहने पर भी और सेवन करने की शक्ति या गुण होने पर भी | जिसकी चित्तवृत्ति निष्कलंक रही, अर्थात् जिनका चित्त जरा भी मलिन नहीं हुआ, ऐसे शासन प्रभावक - शासन की उन्नति करने वाले, सुदर्शन महाश्रावक की हम कितनी स्तुति करें? जितनी स्तुति प्रशंसा करें उतनी थोड़ी ही है ? शील में सुदृढ़ सुदर्शन महाश्रवक का जीवन :
प्राचीन काल में अंगदेश में अलकापुरी से भी बढ़कर चंपापुरी थी। वहां कुबेर से बढ़कर समृद्ध दधिवाहन राजा राज्य करता था। उसके लावण्य में देवांगनाओं को भी मात करने वाली, कलाकुशल, अभया नाम की पटरानी (महादेवी) थी। उसी नगर में समस्त व्यापारियों में अग्रणी, श्रेष्ठकार्य-तत्पर ऋषभदास सेठ रहता था। उसके यथा नाम तथा गुणशाली, जैनधर्मोपासिका, शीलवती अर्हद्दासी नाम की धर्मपत्नी थी। उनके यहां सुभग नाम का नौकर रहता था, जो उनकी गायें - भैंसे चरा लाता था। वह पशुओं को चराने के लिए जंगल में ले जाता और शाम को वापिस ले | आता था। एक बार माघ का महीना था । संध्या समय जब वह पशुओं को चराकर वन से वापिस आ रहा था कि रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे एक बिलकुल निर्वस्त्र मुनि को कार्योत्सर्ग (ध्यान) करते हुए देखा। उसे यह आश्चर्य हुआ-ऐसी ठंडी रात में निर्वस्त्र होकर ठूंठ के समान स्थिर होकर ये कायोत्सर्ग कर रहे हैं। सचमुच, इन महात्मा को धन्य है ! यों | विचार करता हुआ वह घर आया। रात को फिर वह कोमल हृदय बालक उन महामुनि के विषय में चिंतन करने लगा'कहाँ तो मैं इतने वस्त्र ओढ़कर सोता हूं और कहाँ वे महात्मा, जो ऐसे हिमपात के समय भी बिलकुल निर्वस्त्र होकर | रहते हैं। ठंड की वेदना की भी उन्हें परवाह नहीं है।' सुबह भी रात्रि चिंतन के अनुसार पशुओं को लेकर वह वहीं पहुंचा, जहां मुनिराज कायोत्सर्ग में खड़े थे। भक्तिभाव से ओतप्रोत होकर वह मुनि को नमस्कार करके उनकी सेवा में वही बैठ गया । 'साधारण सहृदय लोगों में सहज विवेक होता है।' कुछ ही देर में पूर्वाचल से सूर्योदय हुआ, मानो वह भी श्रद्धापूर्वक ऐसे महामुनियों के दर्शनार्थ आया हो। मुनि ने कायोत्सर्ग (ध्यान) खोलते ही नमो अरिहंताणं शब्द का
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