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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ जिनके बाकुले साधु के पारणे के काम आते हैं।' मूलदेव की भावना से हर्षित होकर एक देव ने आकाशवाणी से कहा'भद्र! तुम आधा श्लोक रचकर मांगो कि मैं तुम्हें क्या दूं?' मूलदेव ने उक्त देव से निम्न अर्द्धश्लोक रचकर प्रार्थना की गणिका-देवदत्तेभ-सहस्र-राज्यमस्तु मे अर्थात् देवदत्ता गणिका और हजार हाथियों वाला राज्य मुझे प्राप्त हो।' देव ने कहा- 'ऐसा ही होगा।' मूलदेव भी मुनि को वंदन करके गांव में गया और भिक्षा लाकर स्वयं ने भोजन किया। इस | तरह रास्ता तय करते हुए वह क्रमशः वेणातट पहुंचा। वहां एक धर्मशाला में ठहरा। थकान के कारण उसे गहरी नींद
आ गयी। सुखनिद्रा में सोते हुए रात्रि के अंतिम पहर में उसने एक स्वप्न देखा- 'पूर्णमंडलयुक्त चंद्रमा ने मेरे मुख में प्रवेश किया है।' यही स्वप्न उस धर्मशाला के किसी अन्य यात्री को भी आया था। वह भी स्वप्न देखते ही जाग गया
और उसने अन्य यात्रियों को अपना सपना कह सुनाया। उन यात्रियों में से एक ने स्वप्नशास्त्र के अनुसार विचार करके उससे कहा-तुम्हें शीघ्र ही खीर और घी के मालपूए मिलेंगे।' इसे सुनकर प्रसन्न होकर यात्री ने कहा-'ऐसा ही हो।' सच है, सियार को बेर भी मिल जाय तो वह महोत्सव के समान खुशियां मनाता है। धूर्तराज ने भी स्वप्न का फल सुन लिया था, इसलिए उसने किसी को अपना स्वप्न नहीं बताया। उसने सोचा-'मूखों को रत्न बताने से वे उसे कंकड़-पत्थर ही बताएँगे।' उस यात्री को गृहाच्छादन पर्व के दिन मालपूए खाने को मिले। स्वप्नफल प्रायः अपने विचार के अनुसार ही मिला करता है। धूर्तराज भी सुबह-सुबह एक बगीचे में पहुंचा। वहां फल बुनते हुए एक माली के काम में सहायता करने लगा। इससे माली खुश हो गया। ऐसा कार्य लोगों के लिए प्रीतिकारक होता ही है। माली से फल-फूल लेकर स्नानादि से शुद्ध होकर वह स्वप्नशास्त्रज्ञ पंडित के वहां गया। मूलदेव ने स्वप्नशास्त्रज्ञ पंडित को नमस्कार किया और उन्हें फल, फूल भेंट देकर अपने स्वप्न का हाल बताया। स्वप्नशास्त्रज्ञ ने प्रसन्न होकर कहा'वत्स! मैं तुम्हारे स्वप्न का फल शुभ मुहूर्त में बताऊंगा। आज तुम मेरे अतिथि बनो।' यों कहकर मूलदेव को आदरपूर्वक बिठाया, यथासमय भोजन कराया। तत्पश्चात् पंडित ने अपनी कन्या विवाह के लिए मूलदेव के सामने लाकर प्रस्तुत की। यह देखकर मूलदेव ने कहा-'पिताजी! आप मेरे कुल, जाति आदि से परिचित नहीं, फिर अपनी कन्या देते हुए कुछ विचार क्यों नहीं करते?' उपाध्याय ने कहा-'वत्स! तुम्हारी आकृति से तुम्हारे कुल और गुण नजर आ रहे हैं। इसलिए अब शीघ्र ही मेरी कन्या स्वीकार करो।' उपाध्याय के आग्रह पर मूलदेव ने उसकी कन्या के साथ विवाह किया। मानो भविष्य में होने वाली कार्यसिद्धि का मुख्य द्वार खुल गया हो। फिर उपाध्याय ने उसे स्वप्नफल बताते हुए कहा-'आज से सातवें दिन तुम यहां के राजा बनोगे।' प्रसन्न होकर मूलदेव वहीं रहा। पांचवें दिन नगर के बाहर जाकर वह एक चंपक वृक्ष के नीचे सो गया।
मूल के बिना जैसे वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही उस नगर का राजा अचानक ही पुत्र रहित मर गया। अतः नये राजा की तलाश होने लगी। इसके लिए घोड़ा, हाथी, छत्र, चामर और कलश मंत्रित करके राजा के सेवकों ने सारे नगर में घुमाये, परंतु राजा के योग्य कोई व्यक्ति नहीं मिला। सचमुच राज-गुणसंपन्न व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। फिर नगर के बाहर उन्हें घुमाते चंपकवृक्ष के पास पहुंचे, जहां मूलदेव सोया हुआ था। मूलदेव को देखते ही घोड़ा हिनहिनाने लगा, हाथी जोर से चिंघाडने लगा। राजसेवक मूलदेव के विषय में संकेत समझकर तुरंत उसके पास पहुंचे और उसे जगाकर राजसी वस्त्रों से सुसज्जित करके कलश से वहीं उसका राज्याभिषेक कर दिया और जयकुंजर हाथी की पीठ पर बिठाया। बिजली के-से दंड के समान स्वर्ण-दंडमंडित दोनों चामर मूलदेव पर दुलाये गये, जिन्होंने हवा करने का काम किया, शरद्ऋतु के मेघ के समान उज्ज्वल श्वेत छत्र मस्तक पर शोभायमान होने लगा। नये राजा मिलने की खुशी में प्रजाजनों ने जय जयकार के नारे लगाये। वाद्यनिनादों ने दशों दिशाओं को गुंजा दिया। इस प्रकार खूब धूमधाम से मूलदेव ने नगर में प्रवेश किया। हाथी से नीचे उतरते ही मूलदेव को राजसेवक राजमहल में ले गये। वहां रखे हुए सिंहासन पर उसे बिठाया। उसी समय देवों द्वारा आकाशवाणी हुई–'देवप्रभाव से युक्त, कलाओं का भंडार यह विक्रम नामक नया राजा राजगद्दी पर बैठा है। जो इस नृप की आज्ञानुसार नहीं चलेगा, उसको वैसी सजा मिलेगी, जैसे पर्वत को वज्र चूर-चूरकर देता है।' इस दिव्यवाणी को सुनकर सारी प्रजा और मंत्रीगण स्तब्ध, विस्मित एवं भयभीत हो गये। जैसे मुनि के इंद्रियगण वश हो जाते हैं, वैसे ही सारे मंत्रीगण सदा के लिए उसके वशवर्ती हो गये। इस प्रकार धीरे
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