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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ अंतर है? दासी ने मूलदेव से भी वही बात कही। चतुर मूलदेव ने ५-६ ईख लेकर उसके मूल और अग्रभाग काटकर साफ किये। पर्व की गांठें निकाल दी और दो-दो अंगुली जितने अमृतकुंडिका के बराबर टुकड़े कर के गंडेरियाँ बना ली। फिर उन्हें केसर, इलायची, कपूर आदि सुगंधित द्रव्यों से संस्कारित व सुगंधित करके शूलों में पिरोकर कटोरों में भरकर भिजवा दी। देवदत्ता ने देखते ही अपनी माता से कहा-'मां! देख लो सोने और पीतल का-सा मूलदेव और अचल में अंतर!' कुट्टिनी ने सोचा-मृगतृष्णा को पानी समझकर जैसे प्यासा हिरन मोहवश उस ओर दौड़ता है, वैसे ही यह पुत्री भी वासना की प्यासी महामोहांधकारवश इस धूर्तराजा की ओर दौड़ रही है। अतः जैसे सांप की बांबी में गर्मागम खौलता हुआ पानी डालने से वह फौरन बाहर निकल भागता है, वैसे ही इस धूर्त के लिए भी कोई ऐसा उपाय करूं जिससे यह नगर से निकलकर भाग जाय।' कुटिनी ने मूलदेव को नगर से निकालने के लिए अचल से मिलकर एक षडयंत्र रचा। दोनों ने गुप्त रूप से मंत्रणा करके यह निश्चित किया और अचल से कहा-'सार्थवाह! तुम दूसरे गांव जाने का झूठा बहाना करना और देवदत्ता को विश्वास दिलाकर यह कहते हुए चले जाना कि मैं गांव जा हूं।' तुम्हें दूसरे गांव गया हुआ जानकर धूर्त मूलदेव बेधड़क होकर देवदत्ता के पास आयेगा। जिस समय देवदत्ता के साथ निश्चिंत होकर क्रीड़ा करता हो, ठीक उसी समय तुम मेरे संकेत के अनुसार सर्व सामग्री लेकर यहां चले आना और सीधे उसके कक्ष में पहुंचकर किसी भी रूप से उसे अपमानित करना; जिससे तीतर-तीतरी के समान देवदत्ता के साथ फिर वह विषयसखानभव नहीं कर सकेगा।' अचल ने वैसा ही करना स्वीकार किया।
इस मंत्रणानसार एक दिन अचल ने देवदत्ता से कहा-'मैं अमुक गांव को जाता हं।' यों कहकर द्रव्य लेकर वह चला गया। उसके जाते ही देवदत्ता ने निःशंक होकर मूलदेव को प्रवेश कराया। कुट्टिनी ने सेवकों के साथ अचल को बुलवाया। अचल का अकस्मात् प्रवेश श्रवण कर देवदत्ता ने मूलदेव को पलंग के नीचे उसी तरह छिपा दिया, जैसे पत्तों को टोकरी के नीचे छिपा देते हैं। अचल मुस्कराता हुआ पल्हथी मारकर पलंग पर बैठ गया और बहाना बनाते हुए बोला-'देवदत्ते! आज मैं बहुत थक गया हूं, इसलिए गर्म पानी से यही बैठा-बैठा स्नान करूंगा। तुम तैयार हो जाओ।' विस्मित और चकित-सी देवदत्ता कृत्रिम मुस्कराती हुई बोली-'स्नान करना है तो आप स्नानगृह में पधारे।' यों कहकर हाथ के सहारे से उसे आदरपूर्वक उठाने का प्रयत्न किया। लेकिन अचल तो पलंग पर ही आसन जमाकर बैठ गया। इसी बीच धूर्तराज न तो पलंग के नीचे से निकल सका और न ही वहां ठीक से बैठा रह सका। मन जब अस्वस्थ रहता है, तब प्रायः शक्तियां भी घट जाती है। इतने में फिर अचल ने कहा-देवदत्ता! आज मुझे स्वप्न आया था कि मैंने मालिश के समय पहने हुए वस्त्रसहित पलंग पर ही स्नान किया। अतः मैं अपने उस स्वप्न को सार्थक करने के लिए ही झटपट चला आया हूं। इस स्वप्न को यदि मैं सार्थककर दूंगा तो मेरे पास शुभ समृद्धि बढ़ जायेगी।' यह सुनते ही कुट्टिनी ने समर्थन करते हुए कहा-'बेटी! ऐसा ही कर! अपने प्राणेश की आज्ञा तूं क्यों नहीं मानती? क्या तूं ने नहीं सुना कि-पतिव्रता स्त्रियाँ अपने स्वामी की इच्छानुसार कार्य करती है।' देवदत्ता ने अचल से कहा-'आर्य! ऐसे रेशमी देवदृष्य वस्त्र की कीमती गद्दी को बिगाड़ना आप जैसे समझदार के लिए उचित नहीं मालूम होता।' अचल ने कहा-'भद्रे! ऐसी कंजूसी दिखाना तेरे लिये ठीक नहीं है। तुम सरीखी स्त्रियाँ पति को जब अपना शरीर अर्पणकर देता है, तब इस गद्दी की चिंता क्यों करती हो? जिसका स्वामी अचल है, उसे किस बात की कमी है? जिसका मित्र समुद्र हो, उसे नमक की क्या कमी हो सकती है?' इस पर धन के अधीन बनी हुई देवदत्ता ने पलंग पर बैठे हुए अचल के शरीर पर तेल मालिश किया और वहीं स्नान कराया। अचल ने स्नान कराते समय मूलदेव स्नान के मैले पानी आदि से चारों ओर से उसी तरह तरबतर हो गया, जैसे महादेव को स्नान कराते समय उनका सेवक चंड हो गया था। कुट्टिनी |ने अचल के सेवकों को आंख के इशारे से बुलाया और धूर्त को पलंग के नीचे से खींचकर निकालने की अचल को प्रेरणा दी। जैसे कौरव ने द्रौपदी के केश पकड़कर उसे खींचा था, वैसे ही अचल ने मूलदेव के केश पकड़कर कोपायमान होकर खींचा। और उससे कहा-'नालायक! तं खद को नीतिज्ञ और बद्धिमान समझता है, फिर आज कैसे फंस गया? अब बता तुझे अपनी करतूत के अनुसार क्या सजा दूं?' अगर तूं धन से वश हो जाने वाली वेश्या के साथ क्रीड़ा करना चाहता है तो जिस प्रकार धनाढ्य जमींदार धन देकर गांव खरीदकर अपनी जागीरी बना लेता है, उसी प्रकार इसे
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