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रामचंद्र का वनवास निर्णय
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ९९
| इस लोक में तो तुम्हारा निवास मेरे कारागार में होगा और परलोक में तुम्हारा निवास नरकागार में होगा।' मरुतराजा ने सारी बातें भलीभांति समझकर उसी समय यज्ञ बंद कर दिया। क्योंकि विश्व में प्रबल शक्तिशाली रावण की आज्ञा तो उसे माननी ही पड़ती। मरुत से यज्ञ बंद करवा कर हवा के समान फुर्तीला रावण सुमेरु अष्टापद आदि तीर्थों की | यात्रा करने चला गया। वहां शाश्वत अशाश्वत माने जाने वाले चैत्यों की यात्रा पूर्ण करके वह वापिस अपने स्थान को लौटा।
इधर अयोध्यानगरी में असीम संपत्ति का स्थान, महारथी दशरथ राजा था। उसके चारों दिशाओं की लक्ष्मी के समान कौशल्या, सुमित्रा, कैकयी और सुप्रभा नामक चार रानियाँ थीं कौशल्या रानी से राम, कैकयी से भरत, सुमित्रा | से लक्ष्मण और सुप्रभा से शत्रुघ्न नामक पुत्रों का जन्म हुआ। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चारों राजपुत्र इंद्र के | ऐरावण हाथी के चार दांतों से शोभा देते थे। वयस्क होने पर रामचंद्र ने धनुष्य पर बाण चढ़ाकर जनकराजा की पुत्री और भामंडल की बहन सीता के साथ विवाह किया। एक दिन राजा दशरथ ने अपनी चारों रानियों को जिनप्रतिमा का | मंगलमय अभिषेक जल भेजा। कौशल्या को वह जल विलंब से मिला। इस कारण वह नाराज हो गयी। उसे मनाने के | लिए राजा दशरथ स्वयं पधारे। उस समय उन्होंने अंतःपुर का एक जराजीर्ण बूढ़ा सेवक देखा, जिसके दांत घंटे के लोलक के समान हिल रहे थे; उसका सिर कांप रहा था, जिससे मुंह भी चलायमान हो रहा था, उसके सारे शरीर पर चांदीसे सफेल बाल थे, उसकी आंखें भौंहों की रोमराजि से ढक गयी थी, मानो यमराज से मृत्यु की याचना करता हुआ| सा वह बूढ़ा कदम-कदम पर लड़खड़ाता हुआ चलता था । उसे देखकर राजा विचार में पड़ गया - मेरी भी ऐसी दशा हो, उससे पहले-पहले मुझे चौथे पुरुषार्थ - मोक्ष की साधना कर लेनी चाहिए ।
दशरथ महाराज महाव्रत अंगीकार करना चाहते थे, इसलिए अपने स्थान पर अपने ज्येष्ठपुत्र को स्थापित करने के लिए उन्होंने राम और लक्ष्मण को बुलाया। तभी भरत की माता कैकेयी ने आकर सत्यप्रतिज्ञ राजा दशरथ से | धीरगंभीर वाणी से उच्चारण करते हुए दो वरदान मांगे ।' तत्काल राजा दशरथ ने एक वरदान के रूप में भरत को | राजगद्दी सौंपी और दूसरे वरदान के रूप में सीतासहित राम और लक्ष्मण को चौदह वर्ष के वनवास की मांग पर उन्हें | वनवास की आज्ञा दी, जिस पर सीतासहित राम और लक्ष्मण ने तत्काल वनप्रस्थान कर दिया और दंडकारण्य में जाकर | पंचवटी के आश्रम में निवास किया। उस समय दो चारणमुनि विचरण करते-करते वहां आये। राम-लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उन्हें नमस्कार किया। श्रद्धालु सीता ने अतिथि रूप दोनों मुनियों को शुद्धभिक्षा देकर आहारदान का लाभ | लिया। उसी समय देवों ने सुगंधित जल की वृष्टि की। उस सुगंध से वहां जटायु नाम का एक गिद्धराज आ गया। दोनों | चारणमुनियों ने वहां धर्मोपदेश दिया। इससे उस पक्षी को भी प्रतिबोध हुआ । उसे जातिस्मरणज्ञान हुआ, अतः पूर्वजन्म | के किसी संबंध के कारण वह हमेशा सीता के पास ही रहने लगा।
एक दिन राम आश्रम पर ही थे। लक्ष्मण फलादि लाने के लिए बाहर वन में गया, वहां लक्ष्मण ने एक तलवार | पड़ी देखी; कुतूहलवश उसने उठा ली और उसकी तीक्ष्णता की परीक्षा करने के लिए उसने पास ही पड़े हुए बांसों | के ढेर में प्रहार किया। उसके बाद बांसों के ढेर के बीच में बैठे हुए किसी पुरुष का मस्तक कमलनाल के समान कटर | गिरा हुआ देखा। देखते ही लक्ष्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ - 'हाय, मैंने बिना ही युद्ध किये आज अकारण ही इस | निःशस्त्र पुरुष को मार दिया!' इस अकार्य के लिए अपनी आत्मा को धिक्कारता हुआ एवं आत्मनिंदा करता हुआ लक्ष्मण अपने बड़े भाई रामचंद्र के पास आया। उसने सारी घटित घटना उन्हें सुनायी। उसे सुनकर रामचंद्र ने कहा- 'भैया ! यह सूर्यहास नामक तलवार है। इसकी साधना करने वाले को तुमने मार दिया है। इसका कोई न कोई उत्तरसाधक वहां पर जरूर होना चाहिए, इतने में ही रावण की बहन, खर की पत्नी चंद्रणखा वहां पर पहुंची, जहां उसका पुत्र मरा पड़ा था। अपने मृत पुत्र को देखते ही वह जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगी- 'हाय ! मेरे पुत्र शंबूक ! तूं कहां है? मुझे छोड़कर तूं कैसे चला गया ?' उसने अपने पुत्र को मारने वाले का पता लगाने के लिए इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, पर वहां कोई नजर नहीं आया। तभी उसकी नजर लक्ष्मण के पैरों की मनोहर पंक्ति पर पड़ी। उसने मन ही मन सोचा - 1. अन्य कथाओं में एक वरदान की बात भी है।
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