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रावण की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ९९ इतना समय व्यतीत हो गया है। अब उनकी सेवा करने का समय आ गया है। अतः आप उनके प्रति या तो भक्ति बताइये, या आप उनके साथ युद्ध करके शक्ति बताइये।' यदि भक्ति या शक्ति दोनों में से आप एक भी नहीं बतायेंगे तो आपका सर्वस्व नष्टकर दिया जायेगा। राजा ने सुनकर दूत से कहा-'बेचारे गरीब राजाओं ने उसकी सेवाभक्ति कर दी होगी। किसी बड़े सत्ताधारी से उसका वास्ता नहीं पड़ा होगा। अब वह मदोन्मत्त होकर मुझसे सेवापूजा कराना चाहता है। अब तक रावण का समय किसी प्रकार सुख पूर्वक व्यतीत हुआ, अब मालूम होता है उसके नाश होने के दिन बाकी रह गये हैं। अतः अपने स्वामी से जाकर कह देना कि अगर वह भला चाहता है तो मेरे प्रति भक्ति बताएँ, अन्यथा शक्ति बताएँ। अगर भक्ति और शक्ति दोनों में किसी भी एक को नहीं बतायेगा तो समझ लो, उसका विनाश निश्चित है।' दूत ने आकर रावण को सारी हकीकत सुनायी। सुनते ही क्रोध से प्रलयकाल के क्षुब्ध समुद्र के समान | भयंकर बना हुआ रावण अनंत सैन्य रूपी उछलती लहरों के साथ युद्ध के मैदान में आ डटा। दोनों पक्ष की सेना
का बड़े भारी संघर्ष के साथ युद्ध प्रारंभ हुआ। दोनों ओर से शस्त्रवर्षा ऐसी लगती थी, मानो संवर्तकपुष्करावर्त मेघवृष्टि हो रही हो। रावण को नमस्कार करके रावणपुत्र मेघनाद ने युद्ध के लिए इंद्र को ललकारा। 'वीरपुरुष युद्ध क्रीड़ा में किसी को अग्रपद नहीं देते।' दोनों में से कौन-सा विजयी होगा, इसका फैसला करने के लिए उभयपक्ष की सेना को दूर करके रावणपुत्र और इंद्र दोनों ही वीर परस्पर द्वन्द्वयुद्ध करने लगे। दोनों युद्धनद को पार करने हेतु परस्पर शस्त्रप्रहार करने लगे। वे फुर्ती से एक-दूसरे को पछाड़ देते थे, इस कारण यह पता लगाना कठिन होता था कि मेघनाद | ऊपर है या नीचे? अथवा इंद्र ऊपर है या नीचे?' विजयश्री भयभीत-सी होकर क्षणभर में इंद्र के पास और दूसरे ही क्षण मेघनाद के पास चली आती थी। इंद्र जब तब अभिमान से मशक की तरह फूलकर शस्त्रप्रहार करने को उद्यत होता, तब तक मेघनाद पूरी ताकत से उस पर हमलाकर देता। और तत्काल ही मेघनाद ने इंद्र को नीचे गिराकर बांध लिया। 'विजयाकांक्षी मनुष्य की जय में पहला कारण आशुकारिता (फुर्ती) होती है।' सिंहनाद से आकाश को गुंजाते हुए मेघनाद ने मूर्तिमान विजय की तरह बांधे हुए इंद्र को अपने पिता रावण को सुपुर्द किया। रावण ने भी उसे प्रबल | सुरक्षा से युक्त कारागार में डाल दिया। क्योंकि बलवान दोनों कार्य करता है-वह मारता भी है तो रक्षा भी करता है। इतने में ही इंद्र को पकड़ने से क्रोधित होकर यमराज, वरुण, सोम और कुबेर इन चारों इंद्र सुभटों ने तत्काल आकर | रावण को घेर लिया। विजयाकांक्षी रावण भी चौगुना उत्साहित होकर उन चारों सुभटों से भिड़ गया। सर्वप्रथम दंडधर (यमराजा) के दंड को तोड़ दिया, फिर कुबेर की गदा चूर-चूरकर दी। तत्पश्चात् वरण का पाशन का धनष तोड डाला। बडा हाथी जैसे छोटे हाथी को पछाड देता है, वैसे ही रावण ने उन चारों को ऐसा पछाडा कि वे चारों खाने चित्त हो गये। फिर बैरी के विनाशहेतु उन चारों को बांध दिया। इंद्र को साथ में रखकर राज्य के सप्त अंगों सहित रावण ने अब पाताललंका को जीतने के लिए कूच किया। वहां के चंद्रोदय राजा को मारकर उसका राज्य तीन मस्तक वाले एवं दूषण में बली खर को सौंपा। चंद्रोदय के सारे राज्य अंतःपुर को कठोर बलशाली खर ने अपने | कब्जे में कर लिया। सिर्फ एक गर्भवती रानी भागकर कहीं चली गयी। उसके बाद लंकापति रावण पाताललंका से लंका पहुंचा और देवताओं के लिए कांटेके समान खटकने वाले अपने राज्य को निष्कंटक बना दिया। [अन्य कथाओं में खर स्वयं पाताल लंका का राज्य जीतता है ऐसा वर्णन है।] | एक बार रावण सैरसपाटा करने पुष्करविमान में बैठकर जा रहा था, तभी इधर-उधर घूमते हुए उसने मरुत | राजा को महायज्ञ करते देखा। उसके यज्ञ को देखने के लिए रावण विमान से नीचे उतरा और यज्ञस्थल पर पहुंचा। मरुत राजा ने रावण को सिंहासन आदि देकर उसका सत्कार किया। बातचीत के सिलसिले में रावण ने मरुतराजा से कहा-'अरे भाई! नरक में ले जाने वाले इस हिंसक यज्ञ को क्यों कर रहे हो? त्रिलोकहितैषी सर्वज्ञ भगवंतों ने तो अहिंसा में धर्म बताया है, फिर पशुहिंसा से अपवित्र इस यज्ञ से धर्म कैसे हो सकता है? इसलिए दोनों लोकों को बिगाड़ने वाले शत्रु के समान इस यज्ञ को मत करो। मेरी बात को ठुकराकर यदि तुम भविष्य में कभी यज्ञ करोगे तो 1. अन्य कथा में रावण द्वारा इंद्र को बांधने का वर्णन है। (2. एक कथा में नारद द्वारा रावण को कहने का वर्णन है।
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