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परस्त्री गमन से दोष
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ९५ से ९८ ।१५१। भीरोराकुलचित्तस्य दुःस्थितस्य परस्त्रियाम् । रतिर्न युज्यते कर्तुमुपशूनं पशोरिव ।।९५।। अर्थ :- परस्त्री में रत मनुष्य सदा भयभीत रहता है, उसका चित्त घबड़ाया हुआ-सा रहता है और वह खराब
स्थिति में रहता है, इसलिए ऐसे परस्त्रीलंपट का परस्त्री के पास रहना वैसा ही खतरनाक है, जैसा कि मारे जाने वाले पशु का शूली के पास रहना। मतलब यह कि सद्गृहस्थ का परनारी से नेह करना जरा
भी उचित नहीं है ।।९५।। व्याख्या :- परस्त्री से प्रीति करना बिलकुल उचित नहीं है। क्योंकि परस्त्रीलंपट हमेशा उस स्त्री के पति, राजा या समाज के नेता आदि से भयभीत रहता है कि कहीं मुझे ऐसा करते हुए कोई देख न ले। इसी कारण वह हमेशा घबराया हुआ रहता है। उसके चित्त में हमेशा यही शक बना रहता है कि कहीं सरकार या सरकारी पुलिस आदि को मेरे इस कुकर्म का पता लग गया तो मेरी खेर नहीं! इसलिए वह जगह-जगह भागता फिरता है और वीहड़ों, ऊबड़खाबड़ खोहों, खंडहरों, एकांतस्थानों या सूने देवालयों में छिपता रहता है, जहां न तो उसे सोने को ही ठीक से बिछौना मिलता है, न खाने पीने का ही ठिकाना रहता है, और न नींद सुख से ले पाता है। इसलिए कहा गया कि परस्त्रीलंपट शूली के पास वध होने के लिए खड़े किये गये अभागे पशु के समान है, जिसका जीव हर समय मुट्ठी में रहता है। अतः परस्त्री से प्रीति करना सद्गृहस्थ के लिए सर्वथा वर्जनीय है।
परस्त्रीगमन से रोकने का कारण बताते हैं।१५२। प्राणसन्देहजननं, परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च, परस्त्रीगमनं त्यजेत् ।।९६।। अर्थ :- जिसमें हर समय प्राणों के जाने का संदेह हो, जो वैर और द्वेष करने का कारण हो, ऐसे इह लोक और
परलोक दोनों से विरुद्ध परस्त्रीगमन का त्याग करना चाहिए ।।१६।। व्याख्या :- परस्त्री-आसक्त व्यक्ति के प्रायः प्राण जाने का खतरा बना रहता है। हर समय उसका जी मुट्ठी में रहता है। दूसरे यह दुर्व्यसन वैर का कारण है। क्योंकि जहां भी वह स्त्री किसी दूसरे से प्रेम करने लगेगी, वहां पूर्व-पुरुष का उसके प्रति वैर बंध जायेगा, वह उसे अपना शत्रु मानकर उसकी जान लेने को उतारू हो जायगा। संसार के इतिहास में स्त्री के लिए बहुत वैरविरोध और झगड़े हुए हैं। और फिर इस लोक में यह नीतिविरुद्ध है, समाज की मर्यादा के | खिलाफ है, ऐसे व्यक्ति की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है। परलोक में धर्मविरुद्ध होने से इस पाप का भयंकर फल भोगना पड़ता है।।९६।।
परस्त्रीगमन उभयलोकविरुद्ध कैसे है? इसे स्पष्ट करते हैं।१५३। सर्वस्वहरणं बन्धं, शरीरावयच्छिदाम् । मृतश्च नरकं घोरं, लभते पारदारिकः ॥९७॥ अर्थ :- परस्त्रीगामी का कभी-कभी तो सर्वस्व हरण कर लिया जाता है, उसे रस्सी आदि से बांधकर कैद में डाल
दिया जाता है, शरीर के अंगोपांग पुरुषचिह्न आदि काट दिये जाते हैं, ये तीन इहलौकिक कुफल हैं। पारलौकिक कुफल यह है कि ऐसा पारदारिक मरकर घोर नरक में जाता है, जहां उसे भयंकर यातनाएँ
मिलती है ॥९७।। अब युक्तिपूर्वक परस्त्रीगमन का निषेध करते हैं।१५४। स्वदाररक्षणे यत्नं, विदधानो निरंतरम् । जानन्नपि जनो दुःखं, परदारान् कथं व्रजेत् ॥९८।। अर्थ :- अपनी स्त्री की रक्षा के लिए पुरुष निरंतर प्रयत्न करता है; अनेक प्रकार के कष्ट उसके जतन के लिए
उठाता है। जब यह जानता है, तब फिर परस्त्रीगमन की आफत क्यों मोल लेता है? स्वस्त्रीरक्षा में इतने
कष्ट जानता हआ भी कोई परस्त्रीगमन क्यों करेगा? ॥९८।। व्याख्या :- अपनी पत्नी को कोई कुदृष्टि से देखता है, तो उसके लिए स्वयं को कितना दुःख होता है, उसके जतन के लिए दीवार, कोट, किले आदि बनाता है, स्त्री को पर्दे या बुर्के में रखता है, पहरेदारों को रखकर येन केन प्रकारेण उसकी रक्षा करता है। अपनी स्त्री की रक्षा में भी मनुष्य रात-दिन जब इतना परिक्लेश करता है और स्वयं उसका दुःख महसूस करता है, तब इस आत्मानुभव से परस्त्री गमन से उसके पति या संबंधी को कितना दुःख होगा;
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