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दुश्चरित्र स्त्रियों के साथ सहवास से नाना प्रकार की हानियाँ
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ८५ से ८८ ।१४१। प्राप्तुं पारमपारस्य, पारावारस्य पार्यते । स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां, दुश्चरित्रस्य नो पुनः ॥८५।। अर्थ :- अर्थ (अपार) समुद्र की तो थाह पायी जा सकती है। लेकिन स्वभाव से ही कुटिल कामिनियों के दुश्चरित्र
की थाह नहीं पाई जा सकती ।।५।। अंगनाओं के दुश्चरित्र के संबंध में कहते हैं।१४२। नितम्बिन्यः पतिं पुत्रं, पितरं भ्रातरं क्षणात् । आरोपयन्त्यकार्येऽपि, दुर्वृत्ताः प्राणसंशये ॥८६॥ अर्थ :- दुश्चरित्र स्त्रियाँ क्षणभर में अपने पति, पुत्र, पिता और भाई के प्राण संकट में पड़ जाय, ऐसे अकार्य भी
कर डालती है ।।८६।। व्याख्या :- 'स्त्री शब्द के बदले यहां नितम्बिनी शब्द का प्रयोग किया है, यह यौवन के उन्माद का सूचक है। ऐसी दुश्चरित्र नारियाँ तुच्छ कार्य या अकार्य का प्रसंग आने पर अपने पति, पुत्र, पिता या भाई तक को मारते देर नहीं लगाती। जैसे सूर्यकांता ने अपने पति परदेशी राजा से विषयभोगों से तृप्ति न होने पर उसको जहर देकर मारते देर नहीं लगायी। कहा भी है-इंद्रियदोषवश नचाई हुई पत्नी सूर्यकांता रानी ने जैसे परदेशी राजा को जहर देकर मार दिया था, वैसे ही अपना मनोरथ पूर्ण न होने पर स्त्रियां पतिवध करने का पाप तक कर डालती है। इसी प्रकार अपनी मनःकल्पित चाह (मुराद) पूरी नहीं होती, तब जैसे माता चूलनी ने पुत्र ब्रह्मदत्त के प्राण संकट में डाल दिये थे, लाक्षागृह बनाकर ब्रह्मदत्त को उसमें निवास कराकर जला देने की उसकी क्रूर योजना थी, मगर वह सफल नहीं हुई। इसी तरह अन्य माताएँ भी पुत्र को मारने हेतु क्रूर कृत्य कर बैठती है। जैसे जीवयशा ने प्रेरणा देकर जरासंघ को तथा अपनी रानी पद्मावती की प्रेरणा के कारण कोणिक ने कालीकुमार आदि भाईयों को अपने साथ जोड़कर बहुत भयंकर महायुद्ध का अकार्य किया था और सेना व अन्य सहायकों को मरण शरण कर दिया था ।।८६।।
इसलिए आगे कहते हैं।१४३। भवस्य बीजं नरकद्वारमार्गस्य दीपिका । शुचां कन्दः कलेर्मूलं, दुःखानां खानिरङ्गना ।।८७।। अर्थ :- स्त्री संसार का बीज है, नरकद्वार के मार्ग की दीपिका है, शोकों का कंद है, कलियुग की जड़ है अथवा
काले-कलह की जड़ है, दुःखों की खान है ।।८।। व्याख्या :- स्त्री वास्तव में संसार रूपी पौधे का बीज है। यह संसार को बढ़ाने-जन्ममरण के चक्र में डालने वाली है। वह नरक के प्रवेशद्वार का रास्ता बताने वाली लालटेन के समान है। शोकोत्पत्ति की कारणभूत है, लड़ाई-झगड़े का मूल है तथा शारीरिक और मानसिक दुःखों की खान है ।।८७।।
यहां तक यतिधर्मानुरागी गृहस्थ के लिए सामान्यतया मैथुन और स्त्रियों के दोष बताये हैं। अब आगे के ५ श्लोकों में स्वदारसंतोषी गृहस्थ के लिए साधारणस्त्रीगमन के दोष बताये हैं।१४४। मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणस्त्रीणां, ताः कथं सुखहेतवः? ॥८८।। अर्थ :- जिन साधारण स्त्रियों के मन में कुछ और है, वचन द्वारा कुछ ओर ही बात व्यक्त करती है और शरीर
द्वारा कार्य कुछ ओर ही होता है। ऐसी वेश्याएँ (हरजाइयों) कैसे सुख की कारणभूत हो सकती
है?।।८।। व्याख्या :- वारांगनाएँ आमतौर पर मन में किसी और पुरुष के प्रति प्रीति रखती है, वचन में किसी अन्य पुरुष के साथ प्रेम बताती है और शरीर से किसी अन्य ही व्यक्ति के साथ रमण करती है। ऐसी बाजारू औरतें भला कैसे विश्वसनीय हो सकती हैं और कैसे किसी के लिए सुखदायिनी बन सकती हैं। कहा भी है-संकेत किसी और को करती है, याचना किसी दूसरे से करती है, स्तुति किसी तीसरे की करती है और चित्त में कोई और बैठा होता है और पास (बगल) में कोई अन्य ही खड़ा होता है; इस प्रकार गणिकाओं का चरित्र सचमुच अविश्वसनीय और अद्भुत होता है।।८८।। और भी देखिए
।१४५। मांसमिश्रं सुरानिश्रमनेकविटचुम्बितम् । को वेश्यावदनं चुम्बेदुच्छिष्टमेव भोजनम् ।।८९।।
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